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________________ जैनवालबोधक धर्म कहनेकी प्रतिज्ञा। जो संसार दुःखसे सारे, जीवोंको सुवचाता है। सर्वोत्तम सुखमें पुनि उनको, भली भांति पहुंचाता है । उसी कर्मके काटनहारे, श्रेष्ठ धर्मको कहता हूं। . , श्रीसमंतभद्रायवर्यका, भाव बताना चहता हूं॥२॥ - जो संसारके दुःखोंसे छुटाकर जीवों को सर्वोत्तम सुख में पहुंचाता है और कर्मोको नष्ट करनेवाला है उसी धर्मको श्रीसमंतभद्राचार्यकृत रत्नकरंडश्रावकाचारके अनुसार वर्णन करता है ॥२॥ धर्म अधर्म किसे कहते हैं ! गणधरादि धर्मेश्वर कहते, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान । सम्यकचारित धर्मरम्य है, सुखदायक सब भांति निदान॥ इनसे उलटे मिथ्या हैं लव, दर्शन ज्ञान और चारित्र । भवकारण हैं, भयकारण हैं, दुखकारण हैं मेरे मित्र ॥३॥ __ गणधरादिक धर्माचार्योंने सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको सर्वसुखदायक धर्म कहा है और इनसे उल्टे मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान व मिथ्याचारित्रको संसारकी परिपाटी बढानेवाला अधर्म कहा है ॥३॥ सम्यग्दर्शनका लक्षण। आठ अंगयुत तीन मूढ़ता-रहित अमद जो हो श्रद्धान! .. सच्चे देवशास्त्र गुरुपर दृढ सम्यग्दर्शन उसको जान ॥ .. .
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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