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________________ जैनवालवांधककिया परन्तु उस कीडेको वह मार नहि सका । उसने जि! जिस मनुष्यको इस घटनाका हाल कहा, वह सब संसारकी भयंकर विचित्र लीलाको सुनकर बडा भय करने लगे और संसारका वन्धन काटने के लिये सबने ही जैन धर्म का आश्रय लिया। कितने हीने तो संसारकी समस्त माया ममता छोडकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली और कितने हीने अभ्यास वढानेकेलिये श्रावकोंके व्रत ग्रहण किये। देवरतिको इस घटनासे बड़ा अचम्भा हो ही रहा था सो एक दिन उन ही देवगुरु नामक अवधिज्ञानी मुनि महा. राजसे इसका कारण पूछा कि-भगवन् क्यों नौ पिताने मुझसे कहा कि- में विष्टामें कीडा होऊगा सो तु मुझे मार डालना, और क्यों जब कि मैं उस कीडाको मारने जाता हूं तब वह विष्टाके भीतर ही भीतर घुसने लगता है। मुनि महागजने इसके उत्तरमें देवरतिसे कहा कि भाई ! यह संसारी जीव गतिसुखी होता है फिर चाहे वह कितनी ही बुरीसे बुरी जगह क्यों न पैदा हो, वह उसी जगह अपने को सुखी मानता है । वहांसे कभी मरना पसन्द नहिं करता यही कारण है कि-- जवतक तुमारे पिता जीते थे तबतक उन्हे मनुष्य जीवनसे प्रेम था और उन्होंने न मरने केलिए उपाय भी किया परन्तु उन्हे सफलता न मिली और ऐसे उच्च मनुष्य गतिसे मरकर-'कीडा होंगे सोभी विष्टामें इसका उन्हे बहुत ही दुःख था इस कारण ही उन्होंने तुमको उस
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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