SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ રૂઠ્ઠું जैनवालबोधक दिव्य ध्वनि मुख खिरै, पुष्प दृष्टि सुर होय । ढोरे चौसठ चमर जख, वाजे दुंदुभि जोय ॥ ११ ॥ अशोक वृक्षका होना, रत्नमय सिंहासन, शिरपर तीन छत्र, पीठ पीछे मामंडल, दिव्य ध्वनिका होना, देवोंके द्वारा फूलोंकी वर्षा होना, यक्ष देवोंके द्वारा चौसठ चमरों का डुलना और दुंदुभि वाजों का वजना ये आठ प्रातिहार्य दें || अनंत चतुष्टय | ज्ञान अनन्त अनन्त सुख,दर्श अनंत प्रमान । वल अनंत अरहंत सो, इष्ट देव पहिचान ॥ १२ ॥ भगवानके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, और अनन्त बल होता है । इन्हें धनन्त चतुष्टय कहते हैं । इसप्रकार ३४ अतिशय ८ प्रातिहार्य और ४ अनन्त चतुष्टय मिटाकर अरहन्त भगवानके कुल ४६ गुण होते हैं ॥ १२ ॥ अठारह दोष । जन्म जरा तिरखा छुधा, विस्मय मरु रति खेद 1 रोग शोक पद मोह भय, निद्रा चिता स्वेद ॥ १३ ॥ राग द्वेष अरु मरन जुत, ये श्रष्टादश दोष । नाहि होत अरहन्तके, सो छवि लायक मोख ॥१४॥ अरहन्त भगवानके इस दोहेमें लिखे हुये १८ दोष नहीं होते- इसी कारण भगवानको व्रीतराग निर्दोष कहते हैं ॥१३-१४॥
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy