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________________ तृतीय.भाग। होत फूल फल ऋतु सवै, पृथ्वी काच समान । चरन कमल तल कमल है, नमते जय जय वान ||७|| मंद सुगंध वयार पुनि, गंधोदककी दृष्टि। भूमि विष कंटक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टि ॥८॥ धर्म चक्र भागें रहै, पुनि वसु मंगल सार। अतिशय श्री अरहंतके, ये चौतीस प्रकार ॥१॥ भगवानकी अर्द्धमागधी (जिसको सब जीच समझ लें) भाषाका होना १ समस्त जीवोंमें परस्पर मित्रताका होना २ दिशाओंका निर्मल होना ३ आकाशका निर्मल होना ४ सव ऋतुओंके फल फूल धान्यादिकका एकही समय फलना ५ एक योजन तककी पृथ्वीका दर्पणकी तरह निर्मल होना ६, चलते समय भगवानके चरण कमलोंके तले सोनेके कमलोंका होना ७, आकाशमें जय जय ध्वनिका होना ८, मंद सुगंधित पवनका चलना ९, सुगंधमय जलकी दृष्टि होना १०, पवन कुमार देवोंके द्वारा भूमिका कंटकरहित होना ११, समस्त जीवोंका आनंदमय होना १२, भगवानके आगे धर्म चक्रका चलना १३, छत्र चमर धुजा, घंटा आदि पाठ मंगल द्रव्योंका साथ रहना १४, इसप्रकार देवकृत चौदह अतिशय मिलानेसे समस्त अतिशय चौंतीस प्रकार होते हैं। अष्ट प्रातिहार्य द्रव्य ... तर अशोकके निकटमें, सिंहासन छविदार। तीन छा सिर पर लसे, भामण्डल पिछार॥१०॥
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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