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________________ तृतीय भाग। अरहंतपरमेष्ठीके गुण । अरहंत उन्हे कहते हैं जिन्होंके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, और अंतराय ये चार वातिया कर्म नष्ट होगये हों मौर जिनमें नीचे लिखे ४६ गुण हों और अठारह दोष न हों। दोहा। चौतीसों अतिशय सहित, प्रातिहार्य पुनि आठ । अनंत चतुष्टय गुण:सहित, ये छियालीसों पाठ॥१॥ अर्थात ३४ अतिशय ८ प्रतिहार्य और ४ अनंत चतुध्य ये सब ४६ गुण होते हैं । चौतीस अतिशयोंमेंसे दश अतिशय तौ जन्मके होते हैं, दश केवलज्ञान होने पर होते हैं और चौदह अतिशय भी केवलज्ञान हुये बाद होते हैं परंतु देवोंके द्वारा किये हुये होते हैं। . नन्मके दश भतिशय । अतिशय रूप सुगंध तन, नाहि पसेव निहार । प्रिय हित वचन अतुल्य वल, रुधिर श्वेत आकार ।। लच्छन सहस रु पाठ तन , समचतुष्क संठान । वज्र वृषम नाराच जुत, ये जन्मत दश जान ॥३॥ अत्यंत सुन्दर शरीर.१, अत्यन्त सुगन्धमय शरीर २, • पसेवरहित शरीर ३, मलमूत्ररहित शरीर ४, हित मित प्रिय
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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