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________________ जैनवालबोधकहै नौ क्रमसे एक हजार नेत्र बना लेता है। पहिले स्वर्गका सौधर्म इंद्र नौ भगवानको प्रणाम करके गोदमें लेलेता है और दूसरे स्वर्गका ईशान इंद्र भगवानपर छत्र लगादेता है तीसरे चौथे स्वर्गके दो इंद्र दोनों तरफसे चवर ढोलते हैं। और शेष के समस्त इंद्र जय जय शन्द करते हैं। इसप्रकार चारोंपकारके देव परम हर्षित होकर भगवानको उस ऐरावत हाथीपर विराजमान करके सुमेरु पर्वतपर ले जाते हैं वहां की अद्ध चंद्राकार पांडुक शिलापर रक्खे हुये रत्नमयी सिंहासनपर विराजमान करते हैं उस समय अनेकप्रकारके बाजे बजाते हैं इंद्राणियां मंगल गाती हैं देवांगनायें नृत्य करती हैं । देवगण हाथोंहाय क्षीर समुद्रसे एक हजार पाठ कलश भर कर लाते हैं और सौधर्म और ईशान दोनों इंद्र भगवानका अभिषेक करते हैं । पश्चात् इंद्राणी भगवानको वस्त्राभूषण पहनाती है और फिर उसी प्रकार महोत्सव करते हुये लोटते हैं। घर आकर भगवानको माताके हायमें सौंप देते हैं और तांडव नृत्य करते हैं. फिर माताकी सेवामें कुवेरको छोडकर सव देव अपने २ स्थानको चले जाते हैं। ११. पंचपरमेष्ठीके मूल गुण । परमेष्ठी उसे कहते हैं जो परम पदमें स्थित हो। परमेष्ठी पांच हैं-१ अरहंत २ सिद्ध ३ प्राचार्य ४ उपाध्याय और ५ सर्व साधु ..
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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