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________________ जैनबालबोधकरमणीक अमर विमान फणिपति, भुगन भुवि छवि छाजई। रुचि रत्नरासि दिपंत दहनसु, तेज पुंज विराजई ॥ ३ ॥ ये सखि सोरह सुपने सूती सयनही । देखे माय मनोहर, पच्छिम रयनही ।। उठि प्रभात पिय पूछियो, अवधिःप्रकासियो । त्रिभुवन पति सुत होसी, फल तिहँ भासियो ।। भासियो फल तिहिं चिचदंपति, परम आनंदित भये । छह मासपरि नवमास बीते, रयण दिन सुखसों गये ।। गर्भावतार महँत महिमा, सुनत सब सुख पावही । मणि 'रूपचंद' सुदेव जिनवर, जगतमंगल गावही ॥४॥ , सारार्थ-जिस समय तीर्थकर भगवान अपनी माताके गर्भ में आते हैं उससे छह महीने पहिले ही प्रथमस्वर्गका इंद्र कुवेरको भेजता है कुवेर भगवान के जन्म होनेवाली नगरीमें आकर उस नगरीको स्त्रमय मंदिर, वन उपवन वगेरेहकी शोमासे सुंदर रचना कर देता, जिसको देखकर सवको पानंद होता है। उसी समयसे नगरीमें रत्नोंकी वर्षा होने लगती है और रुचिक पर्वतपर रहनेवाली देवियां माताको नाना प्रकारसे सेवा करने लगती हैं। छह महीने बाद माताको रात्रिके पिछले भाग १६ स्वप्न दिखाई देते हैं । माता सवेरे ही उठकर अपने स्वामीको सब सुपनों को सुनाकर फल पूछती है तब स्वामी उनका फल कहते हैं-तेरे गर्भसे तीन लोकके स्वामी
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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