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________________ २३४ जैनबालवोधकपास आठ प्रातिहार्य शोभायमान हो रहे थे । उसपर वृषभसेनाको विराजमान देखकर नगरके लोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ। उग्रसेन राजा भी दौडा आया, अपने अपराधकी क्षमा कराई और घर चलनेको कहा । जैसेही यह लौटकर आ रही थी कि वनमें आते हुये गणधर मुनिको देवा। देखकर वृषभसेनाने भक्तिसे नमस्कार किया और उन अवधिज्ञानी मुनि से अपना पूर्वधव पूछना प्रारम्भ किया । मुनि महाराज वोले. कि-पहिले भवमें तू इसी नगरमें नागश्री नामकी ब्राह्मणपुत्री थी और उग्रसेन राजाके मंदिरमें बुहारी लगाया करती थी एक दिन सायंकाल एक मुनि कोटके भीतर पद्मासन ल. गाए ध्यान कर रहे थे जब तुपने ( नागश्रो) मुनिको देखा तो क्रोधसे कहा कि-यहांसे उठ | राजा कटक सहिन आ रहे हैं इसलिये में वुहारी दूंगी यदि तु न उठेगा तो गजाकी सेना से कुचल कर मर जायगा परन्तु मुनि तो अपनेध्यानमें लवलीन थे इसलिये तुझसे कुछ भी न कहा । जब तुझे ज्यादा गुस्सा उमड आया तो इधर उधरका कूरा करा लाकर मुनिके ऊपर डारना शुरू कर दिया और इतना डारा किमुनि महाराज उससे विलकुल दब गये । सुवहमें राजा दर्शनार्थ पाये । वह उस जगह पहुंचे जहां मुनि कूडा कचरासे ढके हुये ध्यानमें लवलीन थे। यद्यपि मुनि का शरीर विल्कुल नहीं दीखता था परंतु श्वासोच्छवास मुनि महाराजकी चल रही थी जिससे कूड़ा कचरा हिलता था।
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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