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________________ जैनपालबोधकद्वादशांगमूल एक अनुभौ भपूर्वकला, . भवदाबहारी धनसारकी सलाँक है ।। यह एक सीख. लीजे यांहीको अभ्यास कीजे, ___याको रस पीजे ऐसो बीर जिनबाक है। इतनो ही सार से ही प्रातमको हितकार, यही लौं मदार और आगे दाढाकै है ॥३॥ __ भगवानसे प्रार्थना । भागम अभ्यास होहु सेवा परकम्प तेरी, संगत पदी मिलौ साधरमी जनकी । संतनके गुनको वखान यह बान परो, , मेटो टेव देव परमओगुन कयनकी ।। .. सवहीसौं ऐन सुखदैन मुख वैन भाखौं,.. भावना त्रिकाल राखौं बातमीक धनकी । जोलौं कर्म काट खोलौं मोक्षके कपाट तौ लौं, येही बात हूज्यौ प्रभु पूजो पास मनकी ॥ ४ ॥ ६१.श्रावकाचार नवम भाग। __ प्रोषधोपवास शिक्षावत । सदा अष्टमा चतुर्दशीको, तज देना चारों आहार ।। यह मोषध उपवास कहाता, दिनभर रहै घर्ष व्यवहार ।।। गकंगा पार होगा। ६ संसाररूपी उष्णताके हरनेवाले । ७ चंदनकी ८ सलाका-सलाई । ९ जिनवाक्य वा जिन वचन है । १० पाने योग्य है. 13 दूसरी सब बातें व्यर्थ है। . . . . . . .
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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