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________________ तृतीय.भाग। २०५. सामायिकमें बैठने की विभि। जब तक चोटी मूठी करडा, बंधा रहेगा, मैं तब तक। सामायिक निश्चल माधंगा, या विचार कर निश्चय तक ! पद्मासन कर भली भांतिसे, अथवा कायोत्सर्ग जु घर । दोय चार या छह घटिका तक, सामायिक तू धारन कर ।। __ सामायिक करनेवाला श्रावक-अपने शिरके बाल. कपडा मूठी बांधकर दो या चार वा छह घडी तक पमासन वा कायोत्सर्ग धारण करके सामायिक स्थिर हो। कर तिष्ठ॥ ७७॥ . ' __सामायिक करने योग्य स्थान । घर हो बन दो चैत्यालय हो, अछ भी हो निरुपद्रव हो । हो एकांत शांत अति सुंदर, परम रम्य औशुचिता हो। ऐसे स्थलमें साम्य भावसे, तनको मनको निश्चलकर । एक मुक्त उपवास दिवस या,प्रति दिन ही सामायिक कर. घर वन चैत्यालय धर्मशाला आदि जहांवर मी एकांत और पवित्र स्थान हो उसी जगहपर साम्यभावसे तन मनको निश्चल करके एकाशन या उपवास के दिन वा मति दिनी: सामायिक करना चाहिये ।। ७ ।। सामायिक करनेका फल। सामायिकके समय गृही, आरंभ परिग्रह तकते हैं। पहिनाये हों वसन जिसे, ऐसे मुनिसे वे दिखते हैं...
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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