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________________ १३८ जैनवालवोधकग्राममें पहुंचे जहां श्रेणिकके मंत्रीका पुत्र पुष्पडाल रहता था, एक दिन आहारके लिये ग्रापमें पाए और उसी पुष्पडालके दरवाजेसे निकले । पुष्पडालने शीघ्र पडगा लिया और भक्तिसे भोजन कराया और यह स्मरण करके कि ये हमारे घडे मित्र थे अपनी स्त्रीसे आज्ञा लेकर कुछ दूरतक पहुंचाने गया । जब कुछ दूर निकल गए और मुनिजीने लौटनेको न कहा तो श्राप स्वयमेव ही महाराज यह वहीं कुआ है जहां हम आप खेला करते थे इत्यादि कुनां वावडी दिखा कर लौटने का प्रयत्न करने लगे परंतु मुनिजीको अव इन पातोंसे क्या प्रयोजन था ? अतः कुछ उत्तर न देकर सीधे चलते ही गये, भव तो पुष्पडाल समझ गया कि महाराज कुछ न कहेंगे इसलिये आगे जाकर हाथ जोडकर खडा हो गया और मुनिजीको वार २ नमस्कार करने लग गया। मुनि जी इसके अभिप्रायको तो जान ही चुके थे परंतु आपने वडी शांतिसे धर्मोपदेश दिया जिससे पुष्पडालका चिच उस समय अपनी कानी स्त्रीसे हटकर वैराग्यकी तरफ मुक गया और उनके साथ ही चल दिया इस तरह दोनों जनोंको तीर्थयात्रा करते हुए बारह वर्ष बीत गए और क्रमसे पद्धमानके समवसरणमें पहुंचे परंतु इतने दिन पुष्पडालको तपचरण में निकल जाने पर भी अपनी कानी स्त्रीकी याद न भूली और इसी संबंध वहीं जाकर एक गंधर्व द्वारा श्लोक भी सुना जिसका अभिप्राय महावीर स्वामी और प्रथिवीके
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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