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________________ १२८ जैनगालबोधक दुर्मिल सवैया । मदिरा निषेध । कृमिरास कुवास सराय दरै, सुचिता सब छीवत जात सही। जिह पान किये सुधि जात हिये, जननी जनजानत नार यही मदिरासप और निषिद्ध कहा, यह जान भले कुल में न गही । धिक है उनको वह जीभ जलो, जिन मूढनके मत लीन कही। वेश्या निषेध । धनकारण पापनि प्रीति क', नहिं तोरत नेह जया तिनको । लव चाखत नीचनके मुहकी, शुचिता सब जाय छिये जिनको। मदपांस वजारनि खाय सदा, अँधले विसनी न करै घिनको । गनिकासंग जे शठ लीन भये, धिक है धिक है धिक है तिनको ।। शिकार निषेध ( कवित मनहर) काननमें वसै ऐसो पानन गरीय जीव, प्राननसे प्यारो मान पूंजी जिस यह है । कायर सुभाव धरै काइसौं न द्रोह करै, सवहींसौं डरै दांत लिये इन रहै है । काइसौं न रोस पुनि कापै न पोष चहै, ___ काहूके परोष परदोष नहिं कहै है। नेक स्वाद सारिवेको ऐसे मृग मारिवेको, '' हा हा रे कठोर तेरो कैसे करें बहै है ॥८॥ - ३ सदाकर। ४ यदि धन नहीं होता है प्रीतिको तिनकेकी तरह तोड डालती है । ५लार--लाला। ६ वनमें जंगलमें । ७ परोक्ष पीठ पी। ८ कैसे हाथ चलाता वा उठाता है।
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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