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________________ जैनबालबोधकतक । अनंतमतीने कहा धर्म व व्रतमें भी कहीं इंसी ठहा वा क्रीडा होती है। मैंनै तौ आठ दिनकी बात नहि सुनी थी मैंनै तौ हमेशहके लिये ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लिया था अब मेरे तो इस जन्ममें विवाह करनेकी सर्वथा निवृत्ति है। ऐसा कहकर वह विद्याध्ययनादि करती हुई धर्मध्यानमें अपना समय विताने लगी। . एक दिन वह वागमें झूला झूलती थी तो विजयाद्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीके किम्मरपुरका विद्याधर राजा कुंडलमंडित अपनी सुकेशी भार्यासहित विमानमें बैठा हुआ जाता था सो वह अनंतमतीको देखकर उसपर मोहित हो गया और अपनी स्त्रीको घरपर रखकर फिरसे आकर रोती विलाप करती अनंतमतीको उठाकर ले गया परंतु अपनी स्त्रीको सामने आती देख डरसे पर्णलघु विद्याके द्वारा भयंकर जंगल में छोड दिया । वहांपर उसको रोती हुई देखकर भीम नामके भिल्ल राजाने उसे अपनी वस्तीमें ले जाकर अपनी पटरानी बनाकर उसके साथ दुष्टता करना प्रारंभ किया परन्तु वहाँके वनदेवताने उस भीम राजाको वडी भारी सजा दी। तब भीमने समझा कि यह कोई देवांगना है। अतः भीमने पुष्पक नामके व्यापारीको सौंपदी। उसने भी लोभ देकर उसे अपनी स्त्री बनाना चाहा परन्तु अनंतपती ने स्वीकार नहिं किया तब उसने अयोध्या नगरीमें लाकर 'कामसेन नामकी कुट्टनीको देदी। वह कुट्टनीके कहनेसे .
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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