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________________ तृतीय भाग। मदमें आ निजमि जनोंका, जो जन करता है अपमान । वह स्वधर्मके मान भंगका, कारण होता है प्रज्ञान ॥२३॥ विद्या, जाति, कुल प्रतिष्ठा, बल, धन, तपस्या और रूप इन आठोंका घमंड करके अन्य धर्मात्माओंका अनादर करता है वह अपने ही धर्मका अनादर करता है ।। २३ ।। पापासव निरोधका फल। अगर पापका हो निरोध तो, और संपदासे क्या काम । अगर पापका पात्रक हो तो, और सपंदासे क्या काम ।। मित्रो यदि पहिला होगा तो, दुखका उदय नहीं होगा । यदि दुभरा होगा तो संगद् होनेपर भी दुख होगा।॥ २४॥ __यदि आपका निराध है तो दूसरी संपदाकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि पापके निरोध होनेसे दुख न हो कर सुख ही होगा और यदि पापका आगमन है तो दूसरी संपदा होने परभी दुःख होगा ॥ २४ ॥ 2000ccee २७. अंजन चोरकी कथा। DASAEEEE राजगृही नगरीमें एक जिनदत्वं नामके बडे धर्मात्मा श्रेष्ठी थे, उनको आकाशगामिनी विद्या प्राप्त थी। वे प्रतिदिन आकाशमार्गसे अकृत्रिमचैत्यालयोंके दर्शन करनेको .१ अनादिकाल से बनेहुये ४५८ मंदिर इस मध्यलोकमें सुमेरु आदि पर्वतोपर हैं।
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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