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________________ तृतीय भाग । ८ । प्रभावना अंग । जैसें होवे वैसे भाई, दूर हटा जगका अज्ञान । कर प्रकाश करदे विनाश तम, फैलादे शुचि सच्चा ज्ञान || तन मन धन सर्वस्व भले हो, तेरा इसमें लग जावै । वज्रकुमार मुनींद्र सहय तू, तब प्रभावना कर पावै ॥ १८ ॥ जिसप्रकार वन सके उस प्रकार जगतका अज्ञान अंधकार दूर करके सत्यार्थ जैन धर्मका प्रभाव प्रगट करदेना सो प्रभावना नामका आठवां अंग है । इस अंग में वज्रकुमार मुनिने प्रसिद्धि पाई है ॥ १८ ॥ अंगहीन सम्यग्दर्शन कार्यकारी नहीं । ६७ सम्यग्दर्शन सुखकारी है, भवसंतति इससे मिटती । अंगहीन यदि हो इसमें तो, शक्ति नहीं इतनी रहती । विपकी व्यथा मिटा देनेकी, शक्ति मंत्रमें है प्रियवर' | अक्षर मात्राहीन हुयेसे, मंत्र नही रहता सुखकर ॥ १६ ॥ जिस प्रकार एक भाघ अक्षररहित मंत्र सांप वगेरह के त्रिपको दूर करने में असमर्थ है उसी प्रकार अंगरहित मोक्षदाता सम्यग्दर्शनं मी भवसतनिको दूर करनेमें असमर्थ होता है ॥ १६ ॥ f , १ | लोकमूढता । गंगादिक नदियोंमें न्हाये, होगा मुझको पुण्य महान | ढेर किये पत्थर रेतीके, होजावैगा तत्व ज्ञान ॥ गिरिसे गिरे शुद्ध होऊंगा, जलें आगमें पावनतंर ।
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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