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________________ तृतीय भाग। रत्नत्रयसे (सम्पग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रसे ) पवित्र और स्वभावसे ही अपवित्र रहनेवाले शरीरमें ग्लानि नहि करके उसके ( सम्यग्दृष्टिके ) गुणों में ही प्रीति करना सो निर्विचिकित्सा नामका तीसरा अंग है । इस अंगको पालकर उद्दयन राजा प्रसिद्ध हो गया है। ४ अमुढ दृष्टि अंग। दुखकारक है कुपय, कुपंथी, इन्हे मानना नहिं मानसे । करना नहिं संपर्क सत्कृती, यश गाना नहि वचनोंसे ॥ चौथा अंग अमूढ दृष्टि यह, जामें अतिशय सुखकारी । इसको धार रेवती रानी, ख्यात हुई जगमें भारी ॥१४॥ कुमार्ग और कुमार्गमें चलनेवालोंकी मन वचन कायसे प्रशंसा स्तुति नहि करना सो अमृढष्टि नामक्षा चौथा अंग है। इस अंगमें रेवती राणी प्रसिद्ध हो गई है ॥ १४ ॥ ५। उपगूहन अंग। स्वयंशुद्ध जो सत्य मार्ग है, उत्तम सुख देनेवाला । अज्ञानी असमर्थ मनुज कृत; उसकी हो निदा माला ॥ उसे तोड़कर दूर फेंकना, उपगृहन है पंचम अंग। इसे पाल निर्मल जस पाया, सेठ जिनद्रभक्त सुखसंग ॥१५॥ स्वयंशुद्ध उत्तम सुख. देनेवाले सत्यार्थ जैन मार्गकी अज्ञानी वा असमर्थ जनोंके द्वारा निंदा होती हो तो उस निंदाको दूर कर देना अर्थात् परके अवगुण और अपने गुणों
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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