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________________ ७२ ] जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास । विनयवाद विनयवादियो को वैनयिक तथा अविरुद्ध भी कहा जाता है। ये लोग चरित्र के महत्त्व को स्वीकार नही करते । उनका कहना है कि केवल विनय (श्रद्धा) से ही मुक्ति या निर्वाण प्राप्त हो सकता है।' विनयवादी देव, राजा, साधु, हाथी, घोडा, गाय, भैस, वकरी, स्पार, कौआ, सारस, घड़ियाल तथा अन्य प्राणियो को भी समान विनयपूर्वक देखते है । मन, वचन, काय तथा दान के द्वारा देवता, मालिक, साधु, मनुष्य, बडे पुरुष, छोटे व्यक्ति, माता और पिता का विनय करने के कारण यह वाद (८४४) ३२ भागो मे विभक्त है। सप्त निव श्रमण भगवान महावीर के तीर्थ मे ७ पवयण निण्हग (प्रवचननिह्नव) कहे गए है । प्रवचननिह्नव का अर्थ है-वे व्यक्ति जो महावीर के सिद्धान्तो से सहमत न होकर उनके प्रवचन का विरोध करते थे। उनके नाम निम्न प्रकार है --~१ जमालि (जमाली), २ तीसगुत्त (तिष्यगुप्त), ३ आसाढ (आषाढ), ४ असमित्त (अश्वमित्र), ५ गगे (गग), ६ छलुए (षडुलुक), ७ गोट्ठामाहिले (गोष्ठामाहिल) जमालि-जमालि भगवान् महावीर के भानजे तथा उन्ही के दामाद (सुदर्शना के पति) थे । महावीर ने ही उन्हे दीक्षित किया था। अनुचित आहार-विहार के कारण उन्हे रोग उत्पन्न हो गया और वेदना से पीडित होकर एक साथी श्रमण से उन्होने सस्तारक (शय्या) विछाने को कहा। श्रमण गय्या विछा ही रहा था कि जमालि ने पूछा, क्या गय्या विछ गई ? श्रमण ने कहा कि, शय्या विछ गई। इस पर जमालि गय्या के निकट आए। किन्तु उन्होने देखा और सोचा कि शय्या विछाई जा रही है अत श्रमण का यह कहना ठीक नही कि शय्या विछ गई है। १ सूत्र कृताग टी० १.२ २. २. वही, १.१२, पृ० २०९ ३ स्थानांग, ५८७.
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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