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________________ द्वितीय अध्याय : आदर्श महापुरुष [ ७१ __ अनेकवादी-इस ससार में सव जगह आत्मा ही आत्मा है। आत्मा के अतिरिक्त संसार मे और कुछ है ही नही। पृथ्वी, तेज, जलादि सब मे आत्मा व्याप्त है। इस प्रकार आत्मा की अनेकता मानने वाले अनेकवादी है। मितवादी-जीवो की अनेकता स्वीकार करते हुए भी उनकी परिमितता को मानने वाले अथवा आत्मा को अगष्टपर्वमात्र या श्यामाक तदुलमात्र परिमित मानने वाले अथवा पृथ्वी को सप्तद्वीप परिमित मानने वाले मितवादी है। निर्मितवादी-इस ससार को ईश्वर, ब्रह्मादि द्वारा निर्मित मानने वाले निर्मितवादी है। समुच्छेदवादी-वस्तु का प्रतिक्षण निरन्वय समुच्छेद (नाग) मानने वाले समुच्छेदवादी है। नित्यवादी वस्तु को सर्वथा नित्य मानने वाले नित्यवादी है। न गान्ति परलोकवादी-इस लोक मे न गान्ति (मोक्ष) है और न परलोक ही है, इस बात को मानने वाले न गान्ति परलोकवादी बुद्ध ग्रन्थो मे पकुधकात्यायन अक्रियावादी माना गया है।' अज्ञानवाद अज्ञानवाद निर्वाण प्राप्ति के लिए जान की आवश्यकता नही मानता । अज्ञानवादी कहते हैं कि परलोक, स्वर्ग और नरक तथा अच्छे-बुरे कर्मो के फल आदि के विपय मे हम कुछ नही जान सकते। स्वर्ग आदि का अस्तित्व है-यह भी नहीं कहा जा सकता अथवा नही है-यह भी नहीं कहा जा सकता। इसके ६७ भेद है। जीवादि पदार्थ, सत्, असत, सदसत, अवक्तव्य, सदवक्तव्य, असदवक्तव्य तथा सदसदवक्तव्य के भेद से (४७) ६३ तथा इनमे सत्, असत्, सदसत्, तथा अवक्तव्य के जोडने से कुल ६७ हो जाते है । १ स्थानाग, ६०७ टीका, पृ० ४०३-४०४ २ ला-"हिस्टारिक्ल ग्लीनिंग्स", पृ० ३३ ३ सूत्रकृताग टीका, १ १२, पृ० २०६
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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