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________________ ६८ ] जैन- अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास और आहुति जल जाती है । दान का पागलपन मूर्खो ने उत्पन्न किया है । जो आस्तिकवाद कहते है वे झूठ भाषण करते है, व्यर्थ की वडवड़ करते है । अक्लमद और मूर्ख दोनो ही का मृत्यु के बाद उच्छेद हो जाता है । मृत्यु के बाद कुछ भी अवशेष नहीं रहता । " केसकवली के इस मत को उच्छेदवाद कहते हैं ।" अन्योन्यवाद आचार्य पकुध - कात्यायन इस वाद के प्रमुख व्याख्याता थे । उनका कहना था कि "सातो पदार्थ न किसी ने किए, न करवाए । वे बंध्य, कूटस्थ तथा खभे के समान अचल है । वे हिलते नही, वटलते नही, आपस में कष्टदायक नही होते । और एक-दूसरे को मुख दुख देने में असमर्थ है। पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, सुख, दुख तथा जीवन ये ही सात पदार्थ है । इनमे मारने वाला, मार खाने वाला, सुनने वाला, कहने वाला, जानने वाला, जनाने वाला कोई नही । जो तेज गस्त्रो से दूसरे के सिर काटता है, वह खून नही करता । उसका शस्त्र इन सात पदार्थो के अवकाश (रिक्त स्थान) में घुसता है ।" इस मत को अन्योन्यवाद कहते है | विक्षेपवाद आचार्य सजय बेलट्ठिपुत्त के वाद को विक्षेपवाद कहते है । उनका कहना है कि "परलोक है या नही, यह मैं नही समझता । परलोक है - यह भी नही, परलोक नही है - यह भी नही । अच्छे या बुरे कर्मो का फल मिलता है, यह भी मैं नही मानता नही मिलतायह भी मैं नही मानता । वह रहता भी है नही भी मृत्यु के वाद रहता है या नही रहता, यह मै नही रहता है यह भी नही, वह नही रहता यह भी नही ।" विक्षेपवाद कहते है | 3 रहता, तथागत समझता । वह इस वाद को उच्छेदवाद, अन्योन्यवाद तथा विक्षेपवाद तथा उनके व्याख्याताओं का विवरण बौद्ध-सूत्रो मे अनेक जगह पाया जाता है ।" १ भारतीय संस्कृति और अहिंसा, २६ पृ० ४६ वही २७ पृ० ४६, ४७ २ 3 वही २९ पृ० ४७ ४. भारतीय संस्कृति और अहिंसा, २३ पृ० ४५.
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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