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________________ ३२] जैन अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास प्रतिदिन अपने सुस्वादु भोजन का एक एक ग्रास डाल दिया करती थी, ढक्कन ऊपर उठाया । ढक्कन उठाना था कि दुर्गन्ध का ज्वारसा आ गया, मारे दुर्गन्ध के राजाओ की नाक फटने लगी, दम घुटने लगा और उन्होने उत्तरीय वस्त्रो से अपने अपने मुह आच्छादित कर लिए। तदनन्तर राजकुमारी जितगत्रु प्रमुख उन सभी राजाओ से इस प्रकार वोली कि "हे देवानुप्रियो, इस रमणीय सुवर्ण प्रतिमा मे मनोज भोजन के एक एक ग्रास को प्रतिदिन डाल देने पर इस प्रकार अगुभ पौद्गलिक एव दुर्गन्ध रूप परिणमन हुआ तो इस औदारिक (स्थूल) शरीर का, जो कि वात, पित्त, कफ, शोणित, पूय, मूत्र, पुरीप आदि से परिपूर्ण एव सडने और गलने के स्वभाव वाला है. अतिम परिणाम क्या होगा? अत. हे देवानुप्रियो, आप लोग इन मानवीय कामभोगो मे अनुरक्त, गृद्ध एवं लुब्ध मत होओ।" इसके बाद मल्ली ने दीक्षा ग्रहण करने का विचार किया। देवराज गक तथा राजा कुम्भक ने मल्लो को सिहासन पर विठाया, सोने के एक हजार आठ कलगों से अभिषेक किया। इसके वाद उन्हे गिविका पर विठाया गया। देवता लोगो ने शिविका को कन्धे पर उठाया और मल्ली ने सहस्राम्रवन मे जाकर दीक्षा धारण की। दीक्षाधारण के साथ ही मल्ली को मन पर्ययज्ञान हुआ । दीक्षा के दिन ही अर्धरात्रि के समय शुभ परिणाम एव प्रगस्त लेण्या के द्वारा तटावरण कर्मो का नाश कर अपूर्वकरण गुणस्थान मे प्रवेश करके मल्ली ने केवलनान तथा केवलदर्शन प्राप्त किया। मल्ली ने सहवाम्रवन से निकल कर बाहर भ्रमण करना प्रारम्भ किया और लोगो को आत्मोन्नति का मार्ग वताया । आर्यिका मल्ली के २८ गण तथा भिक्षुकप्रमुख २८ गणधर थे। उनके संघ मे ४८ हजार श्रमण, ५५ हजार आर्यिका, १ लाख ८४ हजार श्रावक, ३ लाख ६५ हजार श्राविकाएं तया अनेक पूर्वनानी, मन पर्ययजानी तथा वलनानी शिष्य थे। अन्त मे अवगिप्ट कर्मों का नाश कर गनी ने निर्वाण पाया।' - १ नाणधम्म कहानो, आठवा अध्ययन पृ० १०
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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