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________________ प्रथम अध्याय : अंगशास्त्र का परिचय .[8 इस श्रमण-परिपद् ने दोनो वाचनाओ के सिद्धान्तो का परस्पर समन्वय किया और जहाँ तक हो सका भेदभाव मिटाकर उन्हे एक रूप कर दिया।' यही कारण है कि मूल और टीका मे हम "वायंणतरे-पुण" या "नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' जैसे उल्लेख पाते है।' यह कार्य वीर निर्वाण सवत् ६० (४५४ ई०) मे हुआ । वाचनान्तर के अनुसार इस कार्य का काल ६६३ वीर सवत् (४६७ ई०) भी है । वर्तमान मे जो अगशास्त्र उपलब्ध है, उनका अधिकाग इसी समय मे स्थिर हुआ। क्षमाश्रमण देवधिगणी ने आगमो को लिखित रूप देने का कार्य मभवत. इस आशका से प्रेरित होकर किया होगा कि कालान्तर मे कही ये आगम स्मृतिदुर्वलता के कारण लुप्त न हो जाएँ। उनके पहिले आचार्य, शिष्यो के अध्ययन के लिए लिखित ग्रन्थो का प्रयोग नही करते थे, किन्तु वाद मे आगमो के लिखित रूप मे आ जाने के कारण, लिखित आगमो का उपयोग अध्ययन और अध्यापन के लिए होने लगा । प्राचीन काल मे पुस्तके थी ही नहीं। वैदिक पुरुष स्मृति पर ही अधिक विश्वास रखते थे। जैन और वौद्धो ने भी उनका अनुकरण किया । इसमे कोई सदेह नही कि अध्यापन की इस शैली के परिवर्तन का श्रेय देवधिगणी को ही है। प्रत्येक आचार्य तथा कम से कम प्रत्येक उपाश्रय के लिए आगमो की अनेक प्रतियाँ देवधिगणी द्वारा अवश्य तैयार कराई गई होगी। अंगशास्त्र की प्रामाणिकता अंगशास्त्र की प्रामाणिकता और मौलिकता के विषय मे जैनागम के प्रगाढ अभ्यासी डा० हर्मन याकोवी जैसे योरोपीय विद्वानो ने पर्याप्त प्रकाश डाला है। वे इन अगशास्त्रो को वास्तविक 'जैनश्रत' मानते है और इन्हीं के आधार पर वे जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध करने में सफल हुए है।" १ वीर निर्वाण मवत्, पृ० ११२. २ वीर निर्वाण सवत्, पृ० ११६. ३ जैन-आगम, पृ० १५, जैनसूत्राभाग १, प्रस्तावना पृ० ३७. ४ जैनमूत्राज्, भाग १, प्रस्तावना, पृ० ३८, ३९ ५ वही भाग १ प्रस्तावना, पृ० ९
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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