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________________ प्रथम अध्याय : अंगशास्त्र का परिचय [७ शिष्य सभूतिविजय छठे पट्टधर हुए। इसी समय ( ३११ ई० पू० के लगभग) चन्द्रगुप्त मौर्य मगध के सिहासन पर आरूढ हुए । कल्पसूत्रानुसार सभूतिविजय की मृत्यु के बाद आचार्य स्थूलभद्र पट्टधर हए, यद्यपि उस समय विद्या और बुद्धि की अपेक्षा आचार्य स्थूलभद्र से अधिक प्रतिभाशील एव प्रभावशाली, आचार्य यशोभद्र के लघु शिष्य आचार्य भद्रवाहु वर्तमान थे। आचार्य स्थूलभद्र के समय मे मगध मे १२ वर्ष का अकाल पडा। जैन श्रमण सघ का एक भाग आचार्य भद्रवाह की सरक्षकता मे दक्षिण की ओर प्रयाण कर गया, क्योकि उस अकालग्रस्त क्षेत्र मे धर्म के सरक्षण मे सावधान रहना अतिकठिन था। इस अव्यवस्थित समय मे अगगास्त्रो के अध्ययन और अध्यापन की उपेक्षा रही, अत श्रमणसघ को उसका अधिकाग भाग विस्मत हो गया। सुसमय आने पर लगभग ३०० ई० पू०, पाटलिपुत्र मे जैनश्रमणसघ एकत्रित हुआ। एकत्रित हुए श्रमणो ने एक दूसरे से पूछकर ११ अगो को व्यवस्थित किया ।२ उस समय १२ वा अग 'दृष्टिवाद' व्यवस्थित नही किया जा सका, क्योकि उपस्थित श्रमणो मे से किसी को भी उसका ज्ञान नही था। उस अग के एक मात्र ज्ञाता आचार्य भद्रवाह थे। वे महाप्राण नामक ध्यानयोग की साधना के लिए नेपाल की ओर प्रयाण कर गए थे। आचार्य भद्रवाहु ही १४ पूर्वो के एकमात्र ज्ञाता थे। श्रमणसघ ने आचार्य स्थूलभद्र को कई साधुओ के साथ दृष्टिवाद अग तथा १४ पूर्वो के अध्ययन के लिए भद्रवाहु के निकट भेजा, किन्तु उनमें से केवल स्थूलभद्र ही दृष्टिवाद को ग्रहण करने में समर्थ हुए। आचार्य स्थूलभद्र ने दृष्टिवाद के साथ-साथ १४ पूर्वो का भी अध्ययन करना चाहा, किन्तु वे १० पूर्वो का पूर्ण ज्ञान तथा वाकी ४ पूर्वो का अर्थ से हीन केवल शब्दज्ञान ही प्राप्त कर सके। परिणाम यह हुआ कि स्थूलभद्र तक ही चतुर्दग पूर्व का ज्ञान श्रमणसघ मे १ आवश्यकचूगि, तित्योगालीपइन्नय २ आवश्यक बूणि, भाग २, पृ० १८७ हेमचन्द्र परिशिष्ट पर्व, सर्ग ९, प्रलोक ५७, ५८, तथा वीर निर्वाण सवत् पृ०१४
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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