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________________ २२६ ] जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास आयुष्मन्, ज्ञानसम्पन्न जीव समस्त पदार्थों को यथार्थरूप से जान सकता है । यथार्थरूप से जानने वाले जीव को इस चतुर्गतिमय संसाररूपी अटवी मे कभी दुःखी नहीं होना पडता। जैसे धागे वाली सुई खोती नही है, वैसे ही ज्ञानी जीव ससार मे पथभ्रष्ट नहीं होता और ज्ञान, चारित्र, तप तथा विनय के योग को प्राप्त होता है तथा स्वपरदर्शन को यथार्थ जान कर असत्यमार्ग मे नही फँसता।"१ ___ जैनो तथा बौद्धो ने लौकिक विभूतियो को तिलाजलि दी और भिक्ष का जीवन अपना कर भी जान का अर्जन और वितरण किया । तत्कालीन समाज ने नतमस्तक हो कर उन महामनीपियो की पूजा की और अपना सर्वस्व उनके लिए समर्पित कर दिया । ऐसी परिस्थिति मे विद्वानो को अनगार या अकिंचन होने पर भी यह प्रतीत न हुआ कि घर वाले अथवा स्वर्णजटित वस्त्र वाले उनसे अच्छे है । अवश्य ही उन विद्वानो का समाज पर यह प्रभाव पड़ कर रहा कि अनेक राजाओ और राजकुमारो ने अपने वैभव और ऐश्वर्य के पद को अंगीभार न करके जीवनभर ज्ञानमार्ग के पथिक रह कर सरल जीवन विताया और अपने जीवन के द्वारा ज्ञान की महिमा को उज्ज्वल किया ।२ विद्या के अधिकारी-वैदिक काल मे जिन विद्याथियो की अभिरुचि अध्ययन के प्रति होती थी, आचार्य प्राय उन्ही को अपनाते थे। जिन विद्यार्थियों की प्रतिभा ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ होती थी, उन्हे फाल और हल या ताने-बाने के काम में लगना पड़ता था। जैनाचार्यों ने विद्यार्थी की योग्यता के लिए उसका आचार्यकुल में रहना, उत्साही, विद्याप्रेमी, मधुरभापी तथा शुभकर्मा होना आवश्यक बतलाया है। आजा का उल्लंघन करने वाले, गुरुजनो के हृदय से दूर रहने वाले शत्रु की तरह विरोधी तया विवेकहीन शिष्य को 'अविनीत' कहा गया है। इसके विपरीत जो शिष्य गुरु की आज्ञा का पालन १. उत्तराध्ययन, २६, ५६, पृ० ३४३ । २. वही २०, भगवती सूत्र, १२, २, १३, ६ अतगडदसाओ, ७ । ३. छन्दोग्यउपनिपद्, ६, १, २ । ४. उत्तराध्ययन, ११, १४ । ५. वही १,३।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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