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________________ २२४ ] जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास इसके बाद भी अनेक प्रकार के उत्सव मनाये जाते थे। वालक जब कुछ रेगने लगता था, तब "परंगामण", जव चलना प्रारम्भ करता था तव “पयचंकामण", जव प्रयम बार अन्न ग्रहण करता था, तव 'जेमामण" जब प्रथम वार स्पष्ट शब्दो का उच्चारण करता था, तव "पज्जपावण" और जव कान छेदे जाते थे, तब "कर्णवेध" सस्कार होता था । "वर्षन थि" (सवच्छरपडिलक्खण), केशकर्तन (चोलोपण), यज्ञोपवीत (उवनयण) तथा अक्षर ज्ञान (कलाग्रहण) सस्कारो का भी वर्णन जैनागमो मे यत्रतत्र बीज रूप में प्राप्त होता है। भगवतीसूत्र मे सभी सस्कार "कौतुक" कहे गए है। अभयदेव ने कौतुक का अर्थ "रक्षाविधानादि"किया है । इन उत्सवो के समय याग (पूजाविशेष) दाय (दान) आदि क्रियाओं के द्वारा पुत्र की रक्षा का विधान किया जाता था।' विद्यार्थी जीवन-ब्राह्मण-सस्कृति के अनुसार वालक का विद्यार्थी जीवन उपनयन-संस्कार से प्रारम्भ होता है । इस संस्कार के पश्चात उनका ब्रह्मचर्याश्रम-जीवन माना जाता है। उपनयन-सस्कार में आचार्य विद्यार्थी के लिए "गायत्री" या "सावित्री" मन्त्र का शिक्षण आरम्भ करता था । अन्त मे आचार्य ब्रह्मचारी की कटि मे मेखला वाध कर और और दड दे कर ब्रह्मचर्यव्रत का आदेश देता था, "तुम ब्रह्मचारी हो, जल पीओ, काम करो, सोओ मत, आचार्य के अधीन हो कर वेद का अध्ययन करो।"3 उपनयन-सस्कार के वाद आचार्य और विद्यार्थी का वह सम्बन्ध स्थापित होता था, जिसके द्वारा विद्यार्थी लगभग १२ वर्षो तक वैदिक साहित्य तथा दर्शन का अध्ययन करता था । अंगशास्त्र में भी उपनयन (उवणयण) संस्कार का वर्णन है । अभय देव ने उपनयन का अर्थ "कलाग्रहण" किया है। कला का अर्थ है १ २ भगवती, ११, ११, ४२६ पृ० ६६६, १०००, नायाधम्मकहाओ १, २०, कल्पसूत्र, ५, १०२-१०८ ओवाइयसुत्त, ४०, पृ० १८५ । "उपनयन का मालिक अर्थ है (आचार्य के द्वारा) कला-ग्रहण किया जाना।" पाणिनि, १, ३, ३६ । भारतीय संस्कृति का उत्थान, पृ० ४३, ४४ । ३
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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