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________________ षष्ठ अध्याय : श्रमण-जीवन [ २०३ जब श्रमण का शरीर तप की आराधना के कारण उपर्युक्त प्रकार से निर्मास एवं प्रभाहीन हो जाता था, तब वह सोचने लगता था कि जब तक मुझमे शक्ति, बल, वीर्य, पुरस्कार, पराक्रम आदि के साथ धृति श्रद्धा, एवं सवेग (विराग) विद्यमान है; तब तक मेरे लिये यही श्रयकर होगा कि मैं किसी धर्माचार्य या गुरु (ज्येष्ठ मुनि) की सरक्षकता ( निश्राय) मे सल्लेखना (आमरण अनशन – सथारा, ग्रहण कर शाति पूर्वक मृत्यु को प्राप्त करू ं । वह चला जाता है । मलमूत्र - प्रक्षेप-भूमि संल्लेखना - ग्रहण के लिए आचार्य या गुरु अथवा गीतार्थ बडे साधु की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक होता है । आचार्य की अनुमति ले कर श्रमण सर्वप्रथम अपने समस्त साथी श्रमणो से, फिर सघ से व ८४ लक्ष जीवयोनि से अपने पूर्वकृत अपराधो के लिए क्षमायाचना करता है । इसके बाद सल्लेखनालीन साधु की सेवा करने वाले श्रमण के साथ पर्वत आदि किसी एकान्त निर्वाध स्थान मे वहाँ पहुँच कर वह पृथ्वी - शिलापट्टक एव को अच्छी तरह देखभाल कर, झाडपोछ कर दर्भ विछाता है । इसके बाद पूर्व की ओर मुंह करके दर्भ-शय्या पर बैठ कर मस्तक पर अंजलि करके पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करता है और फिर अशन, पान, खादिम तथा स्वादिमरूप चार प्रकार के आहार का जीवनपर्यन्त त्याग कर देता है । सल्लेखना ग्रहण करने वाले साधु के लिए आवश्यक है कि वह संल्लेखना के अतिचारो (दोषो ) से दूर रह कर अपने व्रत का निर्दोष पालन करे । सल्लेखनाव्रत के पाँच अतिचार निम्नप्रकार बताए गए है- ' १ इहलोगाससप्पओगे ( मैं मर कर किसी श्रेष्ठी आदि के रूप मे जन्म लूँ, या प्रचुर सुखभोग के साधन प्राप्त हो, ऐसी वाञ्छा करना ।) २ परलोगासंसप्पओगे ( मैं मर कर देवता आदि के रूप मे जन्म लूँ, मुझे देवलोक के सुख मिले, इस प्रकार की फलाकाक्षा करना ।) ३ जीविया संसप्पओगे ( मेरी जिंदगी बहुत लंबी चले, जिससे मै लोगो से मिलने वाली वाहवाही लूट लूँ, या १. उपासकदशाग, १, ६, पृ० १८ (अभयदेवसूरिवृत्ति, पृ० ३१) |
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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