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________________ षष्ठ अध्याय : श्रमण-जीवन [ १८७ ६ देवसंजप्ता (देवताओ द्वारा सम्बोधित किए जाने पर प्रव्रज्या स्वीकार करना। १० वत्सानुबंधिका (दीक्षित पुत्र के स्नेह के कारण प्रत्रज्या धारण करना )। भावनाशील व्यक्ति कभी-कभी छोटा-सा भी निमित्त मिल जाने पर प्रव्रज्या ग्रहण कर लेते थे। उज्जयिनी की रानी देविलासत्तने अपने पति के सिर पर एक सफेद वाल देख कर उसे अगली से मोड कर निकाल दिया। राजा ने उसे देखा और कहा कि वृद्धावस्था का दूत आ गया है । उसने उसे सोने की पेटी मे वन्द किया, रेशमी वस्त्र से उसे बाँध कर सारे नगर में घुमाया। इसके बाद अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर उसने यह घोषणा की कि हमारे पूर्वपुरुष सफेद बाल होने से पहले ही प्रवजित हो जाते थे; अत. मैं भी प्रव्रज्या स्वीकार करता हूँ। कभी-कभी तो अतितुच्छ कारण भी प्रव्रज्या-ग्रहण के लिए पर्याप्त होता था। भरत ने अपनी अंगुली को मुद्रिकाशून्य अतएव अमनोज्ञ देख कर ससार से वैराग्य प्राप्त किया और दीक्षा ग्रहण की। राजा दुम्मुह ने इन्द्र-ध्वज को गिरते देखा और उन्हे वैराग्य हो गया । अरिप्टनेमि ने पशुओ को वन्धन में देखा और उनकी हिंसा मे खुद निमित्त न वन जाय; इस कारण तया संसार की अनित्यता का ज्ञान कर प्रवज्या धारण की। निम्नोक्त प्रकार के व्यक्ति प्रव्रज्या धारण नही कर सकते थे-बच्चे, वृद्ध, नपुंसक, आलसी, डरपोक, वीमार, डाकू, राजा के शत्रु, पागल, अन्धे, दास, मूर्ख, ऋणी, अंगहीन, बलातधर्म-परिवर्तन करने वाले, गभिणी स्त्री तथा नवयुवती १६ १ स्थानांग, १०, ७१२, पृ० ४५९ । २ आवश्यकचूर्णि, २, पृ० २०२ । ३ उत्तराध्ययन टीका, १८, पृ० २३२ अ ४ वही, ९, पृ० १३६ । ५. वही, ६, पृ० १२६, फुट नोट । ६. स्थानांग ३, २०२, पृ० १५४ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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