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________________ १७२ ] जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास धारण कर सयम का पालन करता हुआ साधु जैसा जीवन व्यतीत करता है। इन प्रतिमाओ के पालन का उद्देश्य उपासक के द्वारा धीरे-धीरे श्रमण-अवस्था को प्राप्त करना है। जैसा कि ग्यारहवी प्रतिमा के नाम से प्रकट होता है। मारणान्तिक सल्लेखना तथा मरणोत्तर विधान सल्लेखना--जीवन की अंतिम व्यवस्था मे उपासक का शरीर वृद्धावस्था एवं तप के आचरण के कारण हड्डियो का ढाँचा मात्र रह जाता है। उसमे उठने-बैठने तथा कर्म करने की शक्ति नहीं रहती। किन्तु उत्यान, क्रिया, वल, वीर्य, पौरुप, श्रद्धा तथा वैराग्य विद्यमान रहते है। उपासक के जीवन मे यह सबसे मूल्यवान एवं अत्यन्त सावधान हो जाने का समय है । यदि इस काल में उपासक अपने कर्तव्यो से लेशमात्र भी च्युत होता है तो उसका जीवनभर आराधित उपासकधर्म निष्फल हो जाता है। इस समय उपासक अत्यन्त शान्ति के साथ मारणान्तिक संल्लेखना धारण करता है। जैनागम मे इस व्रत को अपच्छिममारणतिय संलेहणाझसणाराहणाए (अपश्चिममारणान्तिकसल्लेखनाजोषणाराधना) कहा गया है। "संल्लेखना" शब्द का अर्थ है शरीर तथा कषाय को क्षीण कराना और जोषण शब्द का अर्थ है आत्मसेवा करना। मरणकाल मे अशन-पान का क्रमश सर्वथा त्याग कर शरीर को तथा निरन्तर आत्मोपासना मे लीन रह कर क्रोधादि कपायो को क्षीण करना और अन्त मे शान्तिपूर्वक मृत्यु का आलिगन करना संल्लेखना कहलाता है । ____ मरणोत्तरविधान-जो व्यक्ति जीवनपर्यन्त उपासक के व्रतो का निर्दोष पालन करता है तथा अन्त मे संल्लेखना धारण कर शान्तिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त होता है; वह आनामी जन्म मे नियम से महाद्युति एवं महाऋद्धि से युक्त देवलोक में जन्म लेता है। १ उपासकदगाग अभयदेवसूत्रवृत्ति पृ० २६ नोट न० १ । ११ प्रतिमाओ के विगेप विवरण के लिए देखिए-उवासगदसाओ (डा० पी० एल० वेद्या) पृ० २२४ । २ उपासकदाग (अभयदेवसूत्रवृत्ति) १ ७, पृ २१ । ३. जैनसूत्रा- भाग २ (सूत्राकृताग) २, २ ७७, पृ० ३८४ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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