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________________ चतुर्थ अध्याय · मानव-व्यक्तित्व का विकास [ १२६ २६. अपनी सेना उपद्रव नही करती। ३० दूसरे राजा की सेना उपद्रव नही करती। ३१ अतिवृष्टि नहीं होती। ३२. अनावृष्टि नहीं होती। ३३. दुर्भिक्ष नही होता। ३४ रुधिरवृप्टि तथा ज्वरादि का प्रकोप नही होता। सिद्ध दूसरा पद सिद्ध का है। सिद्ध का अर्थ पूर्ण है। जो राग-द्वषरूप शत्रु ओ को जीत कर, अरिहंत बन कर चौदहवे गुणस्थान' की भूमिका को भी पार कर सदा के लिए जन्म-मरण से रहित हो कर शरीर और शरीरसम्बन्धी सुख-दुःखो को पार कर, अनन्त, एकरस आत्म-स्वरूप में स्थित हो गए है, वे सिद्ध कहलाते है । सिद्धदशा मुक्तदशा है, वहाँ आत्मा ही आत्मा है। वहाँ कर्म नही और कर्म-वन्ध के कारण भी नही है। अतएव वहाँ से लौट कर संसार मे आना नही है; जन्म-मरण पाना नही है । सिद्ध, लोक के अग्रभाग मे विराजमान है। जहाँ एक सिद्ध है वहाँ अनन्त सिद्ध है। प्रकाश मे प्रकाश मिला हुआ है। "णमो सिद्धाणं" के पद द्वारा त्रिलोकवर्ती अनंतानंत सिद्धो को नमस्कार किया जाता है। साधक, सम्यक्त्व की भूमिका से चतुर्थ गुणस्थान से विकास करता हुआ जीवनमुक्त अरिहंत बनता है और उसके वाद विदेहमुक्त हो जाता है । इस प्रकार सिद्ध आत्म-विकास की अन्तिम कोटि पर है, उससे आगे और कोई विकासभूमिका नही है। यह साधक से, साधना द्वारा सिद्ध होने की अमर यात्रा है। जैन संस्कृति का अन्तिम ध्येय सिद्धत्व है। ससारिक अवस्था मे प्राणी के कर्मों का बंधन होता है। क्षण-प्रतिक्षण प्राणी इन कर्मो के फल का अनुभव करके इनसे मुक्ति भी पाता रहता है और क्षण-प्रतिक्षण शुभ और अशुभ क्रिया-रूप व्यापार द्वारा इन्ही कर्मो का सचय भी करता रहता है । इस प्रकार कर्मों की एक संतति चलती रहती है, जो इस आत्मा को कभी स्वतन्त्र नहीं होने देती। साधक संयम के द्वारा आने वाले कर्मों का मार्ग बन्द कर देता है और १. समवायाग, १४ । २ श्रमण सूत्र, पृ ९
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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