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________________ १२८ ] जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानवव्यक्तित्व का विकास १४ कण्टक अधोमुख हो जाते हैं । १५ ऋतुएँ सुखस्पर्श वाली हो जाती है । १६ समवर्तक वायु के द्वारा एक योजन तक के क्षेत्र की शुद्धि हो जाती है । १७. मेघ द्वारा उचित विन्दुपात से रज और रेणु का नाश हो जाता है । १८ पंचवर्ण वाला सुन्दर पुष्पसमुदाय प्रकट हो जाता है । १६ (अ) अनेक प्रकार की धूप के धुएँ से क्षेत्र सुगंधित हो जाता है । (ब) अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध का अभाव हो जाता है । २० (अ) भगवान् के दोनो ओर आभूषणी से सुसज्जित यक्ष चमर ढोते हैं । (ब) मनोज्ञशब्दादि का प्रादुर्भाव हो जाता है । (स) उपदेश करने के लिए अरिहंत भगवान् के मुख से एक योजन को उल्लंघन करने वाला हृदयगम स्वर निकलता है । २२ भगवान् का भापण अर्द्धमागधी भाषा मे होता है । २३ भगवान् द्वारा प्रयुक्त भाषा आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुप्पद आदि समस्त प्राणिवर्ग की भाषा के रूप मे परिवर्तित हो जाती है । २४ पहिले वद्धवर देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, गंधर्व आदि देव भगवान् के पादमूल मे प्रशातचित्त हो कर धर्म-श्रवण करते है । २५ अन्य तीर्थ वाले प्रावचनिक (विद्वान् ) भी भगवान् को नमस्कार करते है । २६ अन्य तीर्थ वाले विद्वान् भगवान् के पादमूल में आ कर निरुत्तर हो जाते है । जहाँ भगवान् का विहार होता है, वहाँ पच्चीस योजन तक निम्न बाते नही होती २७. ईति (धान्य को नष्ट करने वाले चूहे आदि प्राणी की उत्पत्ति) नही होती । २६ मारी (संक्रामक बीमारी) नही होती ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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