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________________ ११८ ] जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास कर्मसमारम्भ का ज्ञान-आत्मज्ञान के साथ ही मनुष्य को कर्मसमारम्भ का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, क्योकि कर्मसमारम्भ ही जीवन को अनेक योनियो मे भ्रमण कराता हुआ सासारिक दुखो को सहन करने के लिए बाध्य करता है। संसार का प्रत्येक प्राणी अपने जीवन की रक्षा के लिए लोक मे मान-सम्मान, पूजा-प्रतिष्ठा आदि पाने के लिए, जन्मान्तर मे उच्च जाति के प्राप्त्यर्थ, शत्रु आदि के मारणार्थ तथा दुखो से मुक्ति के लिए एवं अपने दुखो को नष्ट करने के लिए जो अनेक प्रकार के हिंसादि क्रियाओ से परिपूर्ण कर्म करता है, वे ही कर्मसमारम्भ कहलाते है। यही कर्मसमारम्भ कर्मवंधन का कारण होने से संसार-परिभ्रमण का कारण है। यह कर्मसमारम्भ तीन प्रकार से होता है या तो ये हिंसादि-परिपूर्ण कार्य स्वयं किये जाते है अथवा दूसरो से कराए जाते है अथवा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किये जाने पर अनुमोदना किए जाते है । आत्मजान से परिपूर्ण विकासोन्मुख व्यक्ति के लिए तीनो प्रकार से ही कर्मसमारम्भ न करने का संकल्प करना चाहिए।' हिसादि का ज्ञान-एक साधारण व्यक्ति को जब आत्मज्ञान होता है तो उसे संसार की समस्त आत्माओ के प्रति पूर्ण सद्भावना पैदा होती है और वह यह जानने की चेष्टा करता है कि इस पृथ्वी-तल पर कहाँकहाँ आत्मा का निवास है। अन्त मे उसे ज्ञात होता है कि संसार मे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन सभी मे आत्मा का निवास है । इन पाँच प्रकार के जीवो के अतिरिक्त एक अन्य प्रकार का जीव भी है, जो चलता-फिरता है और जिसमे जीवन का ज्ञान स्पष्टरूप से दिखाई देता है। छोटे से छोटे कीड़े से लगा कर मनुष्य तक के जीव इसी द्वितीय श्रेणी मे आते है। आत्मज्ञान के साथ इन छह प्रकार के जीवो का ज्ञान भी आवश्यक है। कर्मसमारम्भ को अनन्त संसार का कारण समझने वाला प्राणी इन छह काय के जीवो की सुरक्षा मे निरन्तर तत्पर रहता हुआ अपनी आत्मा के विकास के प्रति उन्मुख रहता है । वह निष्प्रयोजन किसी प्राणी का नाश तो करता ही नही है, सप्रयोजन भी प्रमादरहित हो कर कम-से-कम प्राणि-हिंसा हो, ऐसा संयत जीवन विताने का प्रयत्न करता है। १ आचारांग, १, १, ११-१३ २. वही, १, १, १५-६१ (प्रथम अध्याय 'शस्त्रपरिज्ञा')।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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