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________________ चतुर्थ अध्याय . मानव-व्यक्तित्व का विकास [ ११७ साथ सम्बद्ध होने से ये कर्म ही आत्मा के उत्थान एवं पतन के लिए पूर्णरूप से उत्तरदायी है। बुद्धि की अर्द्ध-विकसित अवस्था पार करने के बाद मनुष्य जब संसार का वास्तविक दर्शन और ज्ञान प्राप्त करता है, वह अवस्था मनुष्य के जीवन मे वहुत महत्त्वपूर्ण मानी गई है । यहाँ से उसके जीवन के विकास अथवा पतन का प्रारम्भ होता है। इस अवस्था मे यदि मनुष्य अपनी नाना प्रवृत्तियो और बाह्य उत्तेजनाओ के प्रवाह मे अपने को निर्वन्ध छोड़ दे तो वह जीवन की परस्पर विरोधी क्षुद्र और निरर्थक बातों में अपने को फंसा देगा और वह जीवन के मूल स्रोत को स्पर्श भी न कर सकेगा। यही कारण है कि मानव-गति को सुगति तथा दुर्गति दोनों रूप माना गया है। आत्मज्ञान-मनुष्य के विकास की सबसे प्रथम श्रेणी यह है कि वह अपनी वर्तमान स्थिति पर गहन विचार करे कि उसे मनुष्यजीवन मे जो जो वस्तुएँ प्राप्त हुई है, उनकी वास्तविकता क्या है ? शरीर क्या है, और आत्मा क्या है; मैं कौन हू, मै कहाँ से आया हूँ और कहाँ जाऊँगा; यह आत्मा जन्म-जन्मान्तर मे संक्रमण करने वाला है अथवा नही? आदि प्रश्नो पर उसे पूर्णरूप से विचार करना चाहिए । संभव है, उसे इन प्रश्नो का उत्तर स्वयं न मिल सके तो उसका कर्तव्य है कि वह किसी विशिष्ट ज्ञानी का समागम प्राप्त कर संसार की वास्तविकता को जानने की चेष्टा करे । धीरे-धीरे उसे ज्ञात होता है कि इस संसार मे दो द्रव्य प्रधान है, आत्मा तथा अनात्मा । सांसारिक व्यक्ति का आत्मा अनात्मा के बन्धन मे पड़ कर जन्म-जन्मान्तरो मे निरन्तर संक्रमण करता रहता है। आत्मा - का स्वभाव अमूर्त तथा ज्ञानदर्शनरूप है जव कि अनात्मा का स्वभाव विल्कुल इसने विपरीत है। १. "कर्म से बंधा हुआ यह जीव ससार मे परिभ्रमण करता रहता है ।" -उत्तराध्ययन, ३३, १। २. स्थानाग, १२१ ।। ३. आचाराग, १, १, १-५ । ४. वही, १, १, ११ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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