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________________ ११० ] जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास भूतल पर चार दिशा-कुमारिकाएँ हाथो मे वलिपिंड लिये चारो दिशाओ मे खडी है, जिनकी पीठ मेरु की ओर है एव मुख दिशाओ की ओर । उक्त चारो दिशा-कुमारिकाएं अपने-अपने बलि-पिंडो को अपनी अपनी दिशाओ मे एक साथ फैकती है और उधर उन मेरुशिखरस्थ छह देवताओ मे से एक देवता तत्काल दौड़ लगा कर चारो ही बलिपिडो को भूमि पर गिरने से पहले ही पकड़ लेता है । इस प्रकार शीघ्र गति वाले वे छहो देवता है। एक समय वे छहो देवता लोक का अन्त मालूम करने के लिए क्रमश छहो दिशाओं मे चल पड़े। अपनी पूरी गति से एक पल का भी विश्राम लिये बिना वे दिन-रात चलते रहे। जिस क्षण देवता मेरुशिखर से उड़े, कल्पना करो, उसी क्षण किसी गृहस्थ के यहाँ एक हजार वर्ष की आयु वाला पुत्र उत्पन्न हुआ। कुछ वर्ष पश्चात् मातापिता परलोकवासी हुए है। पुत्र बड़ा हुआ और उसका विवाह हो गया। वृद्धावस्था मे उसके भी पुत्र हुआ और बूढ़ा हजार वर्ष की आयु पूरी करके चल वसा । इसके बाद उसका पुत्र, फिर उसका पुत्र, फिर उसका भी पुत्र, इस प्रकार एक के बाद एक, एक हजार वर्ष की आयु वाली सात पीढ़ियाँ गुजर जाएँ, इतना ही नहीं, उनके नाम, गोत्र भी विस्मृति के गर्भ मे विलीन हो जाएँ, तब तक वे देवता चलते रहे, फिर भी लोक का अंत नही प्राप्त कर सकते। इतना महान् और विराट् है यह संसार ।" पानी की एक नन्ही-सी बूंद असख्यात जलकाय जीवो का विश्रामस्थल है । पृथ्वी का एक छोटा-सा रजकण असख्यात पृथ्वीकायिक जीवो का पिण्ड है। अग्नि और वायु के सूक्ष्म-से-सूक्ष्म कण भी इसी प्रकार असंख्य जीवराशि से समाविष्ट है। वनस्पति-काय के सम्बन्ध मे तो कहना ही क्या है। जैन-साहित्य मे विश्व की विराटता के लिए चौदह राजु की भी एक मान्यता है । एक व्याख्याकार राजु का परिमाण बताते हुए कहते है कि कोटि मन लोहे का गोला यदि ऊँचे आकाश से छोडा जाए और वह दिन-रात अविराम गति से नीचे गिरता-गिरता छह मास मे १. भगवती सूत्र, ११, २० ४२१.
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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