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________________ चतुर्थ अध्याय मानव-व्यक्तित्व का विकास विराट् विश्व ___ जव हम इस ससार मे अपनी आखे खोल कर देखते है तो चारो ओर एक असीमित विश्व के दर्शन होते हैं। प्रत्येक दिशा तथा विदिशा मे लाखो-करोडो और अनन्त योजन तक नदी, समुद्र, मैदान और जंगल है, जिनमे अनन्त जीव अपने क्षुद्र जीवन की मोह-माया में उलझे रहते है । यह विराट ससार जीवो से ठसाठस भरा हुआ है। भूमण्डल पर अगणित कीडे मकोडे, समुद्रो में अनन्त मच्छ-कच्छ, मगर और घडियाल, तथा आकाश मे रंग-विरगे असख्यात पक्षीगण अपनीअपनी लीलाओ में मग्न है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में असख्यात जीवो का एक विराट संसार सोया पड़ा है। भगवान महावीर ने गौतम द्वारा लोक की विशालता के बारे मे पूछे जाने पर विश्व की विराटता का कैसा सुन्दर चित्र उपस्थित किया है--"गौतम, असख्यात कोटि-कोटि योजन पूर्वदिशा मे, असख्यात कोटि-कोटि योजन पश्चिम दिशा मे, इसी प्रकार असख्यात कोटि-कोटि योजन दक्षिण, उत्तर, उर्ध्व एवं अधो दिशा मे लोक का विस्तार है।' गौतम प्रश्न करते है-"भन्ते। यह लोक कितना बड़ा है ?" भगवान् समाधान करते है-"गौतम, लोक की विशालता को समझने के लिए कल्पना करो कि एक लाख योजन के ऊँचे मेरुपर्वत के शिखर पर छह महान् शक्तिशाली ऋद्धिसम्पन्न देवता वैठे हुए है और नीचे १ भगवती, १२, ७, ४५७
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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