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________________ १०६ ] जैन-अंगशारत्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास द्वीप की है वही संख्या पुष्कराध-द्वीप की भी है, क्योकि पुष्करवर द्वीप के अर्द्धभाग मे मानुषोत्तर पर्वत के पहले ही मनुष्य तथा तियंचो का निवास है। ____ अधोलोक-तिर्यग्लोक के नीचे कुछ अधिक सात रज्जुप्रमाण विस्तार वाला अधोलोक है। इनमे नारकी जीवो का निवास है। जो जीव अशुभ कर्मों द्वारा पापोपार्जन करके नरकगति को प्राप्त करते है. वे नारकी कहलाते है । नारकी जीव इन पृथ्चियो मे आ कर अपने पूर्वोपाजित कर्मानुसार महादु खो को भोगते है। ___ अधोलोक के सात विभाग है (१)-रत्नप्रभा, (२ शर्कराप्रभा, (३) वालुकाप्रभा, (४) पकप्रभा, (५) धूमप्रभा (६) तम , तथा (७) तमस्तमः । इन सातो पृथ्वियो के नाम उस उस पृथ्वी मे रहने वाली प्रभा एवं अंधकार की तरतमता के अनुसार है। जैसे रत्नप्रभा पृथ्वी मे रत्न की प्रभा के समान प्रकाश है तथा तमस्तम.पृथ्वी मे घोर अन्धकार है। जैनधर्म और ईश्वर जैनधर्म की यह विशेषता है कि उसमे प्राकृतिक तथा आधिदैविक देवो अथवा नित्यमुक्त ईश्वर को ही पूज्य का स्थान नही है ; उसमे तो एक सामान्य मनुष्य भी अपना चरम विकास करके जनसाधारण के लिए ही नही, किन्तु देवो के लिए भी पूज्य वन जाता है। इसी कारण इन्द्रादि देवो का स्थान जैनधर्म मे पूजक का है, पूज्य का नही । स्यानाग मे कहा गया है कि अरिहतो की उत्पत्ति के समय, उनके प्रव्रज्या धारण करने के समय तथा उन्हे केवलज्ञान उत्पन्न होने के समय इन्द्रादि देव अपने आसन से उठते है, आसन से चलते है, सिंहनाद (हर्प ध्वनि) करते है, चेलोत्क्षेप (हर्ष मे उन्मत्त होकर वस्त्रादि फेकना) करते है तथा महोत्सव मनाने के लिए स्वर्गलोक से उतर कर मनुष्यलोक मे आते है। १. स्थानांग, ५५५ तथा ६३ २. वही, ५४६ ३. "देवा वि तं नमसति जस्स धम्मे सया मणो।" दशवकालिक ४. स्थानाग, १३४
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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