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________________ १०४ ] जैन अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास व्यन्तरदेव अपनी इच्छा से या दूसरो की प्रेरणा से तीनो लोको मे भिन्न-भिन्न स्थानो पर जाया करते हैं । वे विविध प्रकार के पर्वत तथा गुफाओ के अतरो मे वसने के कारण व्यन्तर कहलाते है । इनके भेद है -१ पिशाच, २ भूत, ३ यक्ष, ४ राक्षस, ५. किन्नर, ६ किपुरुप, ७ महोरग, गन्धर्व ।' ज्योतिष्क जाति के देव प्रकाशमान विमानो मे निवास करने के कारण ज्योतिष्क कहलाते हैं । इनके पाँच भेद है – १ चन्द्र, २ सूर्य, ग्रह, ४ नक्षत्र, ५ तारा |२ वैमानिकदेव यद्यपि विमानों में निवास करते है फिर भी उनका यह नाम पारिभाषिक मात्र है, क्योकि अन्य देव भी विमानो मे रहते है । इन देवो के विमान एक दूसरे के ऊपर स्थित है। वैमानिको के दो भेद है —— कल्पोपपन्न तथा कल्पातीत | जो कल्प मे रहते है वे कल्पोपपन्न कहलाते है । कल्प के १२ भेद है—१ सौधर्म, २ ऐगान, ३ सानत्कुमार, ४ माहेन्द्र, ५ ब्रह्मलोक, ६ लान्तक, ७ महाशुक्र, सहस्रार, आनत, १०. प्राणत, ११. आरण, १२ अच्युत । क्ल्पो के ऊपर अनुक्रम से विमान है, जो पुरुषाकृति लोक के ग्रीवा स्थानीय भाग मे होने के कारण ग्रैवेयक कहलाते है । इनके ऊपर विजय, वैजयन्त, जयत, अपराजित, तथा सर्वार्थसिद्धि ये पाँच विमान क्रम से ऊपर-ऊपर है, जो सवसे उत्तर (प्रधान) होने के कारण अनुत्तरोपपातिक कहलाते हैं । 3 ε 2 तिर्यग्लोक -- ऊर्ध्वलोक के नीचे तथा अधोलोक के ऊपर १८ म योजन प्रमाण तिर्यग्लोक है । इसमे मनुष्य तथा तिर्यचो का निवास है । लोक के मध्य मे होने के कारण इसे मध्य-लोक भी कहते हैं । मध्यलोक में असख्यात द्वीप और समुद्र है । वे क्रम से द्वीप के वाद समुद्र तथा समुद्र के वाद द्वीप इस तरह अवस्थित है । जम्बूद्वीप थाली जैसा गोल है और अन्य सव द्वीप तथा समुद्रो की आकृति वलय स्थानांग, ६५४ २ वही, ४०१ ३ ४ समवायाग, १४९ स्थानाग, १५३ (अभयदेवसूत्रवृत्ति, पृ० १२१ व )
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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