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________________ जैन- अंगणास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास है । आस्रव के द्वार पाँच कहे गये है- १ मिथ्यात्व, २ अविरति ३ प्रमाद, ४ कपाय, और योग 1 (22 ] मन मे पदार्थों की यथार्थता के प्रति श्रद्धा न होना मिथ्यादर्शन है । हिसादि पापो के त्यागरूप व्रत का अभाव अविरति है । धर्म के प्रति अश्रद्धा के कारण धर्माचरण में आलस्य प्रमाद है । क्रोध, मान, माया तथा लोभ, आत्मा को दुख देने के कारण कपाय कहे गये है । मन, वचन तथा काय की प्रवृत्ति योग है ।" आत्मा प्रतिक्षण मिथ्यादर्शनादि के द्वारा कर्म का आकर्षण करता रहता है। प्रश्न व्याकरणाग मे आस्रव के कारणभूत हिसा, असत्य, चोरी, मैथुन तथा परिग्रह रूप पाचो पापो को आस्रव कहा गया है । " ४ बंध - कपाय सहित होने के कारण जीव के द्वारा कर्मरूप पुद्गल - परमाणुओ का ग्रहण किया जाना बध है । वध शब्द का अर्थ है - बधन, अर्थात् आत्मा तथा कर्म का परस्पर वध जाना - एक क्षेत्र मे स्थित हो जाना । यह वध चार प्रकार का है - १ प्रकृतिवध, २ स्थितिवध, ३ अनुभाववध, ४ प्रदेशवध | कर्म पुद्गलो मे ज्ञानादि को आवरण करने का जो स्वभाव वनता है वही स्वभाव निर्माण प्रकृतिवध है । स्वभाव वनने के साथ ही साथ उस स्वभाव से किसी निश्चित समय तक च्युत न होने की मर्यादा भी पुद्गलो मे निर्मित होती है, यह काल मर्यादा का निर्माण ही स्थितिवध है । स्वभावनिर्माण के साथ ही उसमे तीव्रता, मन्दता - आदि रूप मे फलानुभव कराने वाली विशेषताएँ बधती है। ऐसी विशेषता ही अनुभाववध है । ग्रहण किए जाने पर भिन्न-भिन्न स्वभाव में परिणत होनेवाली कर्मपुद्गलरात्रि स्वभावानुसार किन्ही निञ्चित परिमाणो मे वॅट जाती है, यह परिमाणविभाग ही प्रदेशवध कहलाता है । स्थानाग, ४१८, (अभयदेव तंत्र त्ति, पृ० ३०० - ३०१ व ) २ वही, ७० +3 ५ ६ " 7.1 वही, १६६ वही ४८ वही, १२४ प्रश्नव्याकरणाग, १, २, पृ० ५ अ
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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