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________________ तृतीय अध्याय जैन-तत्त्वज्ञान [६७ नीरोग मनुष्य के एक 'स्वासोच्छ्वास" को "प्राण" कहते है। इस प्रकार के सात प्राणो का एक "स्तोक" सात स्तोको का एक "लव" और ७७ लवो का एक "मुहूत" होता है। इस प्रकार एक मुहूर्त में ३८७३ च्वासोच्छ्वास होते है । ३० मुहूर्तों का एक "अहोरात्र" (रात दिन), १५ अहोरात्र का एक "पक्ष", दो पक्ष का एक "मास", दो नास को एक "ऋतु", तीन ऋतुओ का एक "अयन", दो अयन का कि "मवत्सर" (बर्ष) तथा पाच सवत्सर का एक "युग" होता है। औपमिककाल दो प्रकार का है-पल्योपम और सागरोपम ।। पल्यो पम-~-एक योजन (चार कोस) प्रमाण लवा, चौडा, और गहरा एक पल्य गड्ढा) रूस-ठूस कर वालाग्रो (जिसका दूसरा खड न हो सके ऐसे वाल) से भरा जाए। उस पल्य मे से सौ-सौ वर्प के अन्तर ने एक-एक वालाग्र निकाला जाए और इस प्रकार जितने काल मे वह पल्य खाली हो जाए उतने काल को एक पल्योपम कहते है। ___सागरोपम-दस कोटाकोटि (एक करोड ४ एक करोड़)पल्योपमो का एक सागरोपम होता है । व्यवहारकाल के अन्य छह भेद किए गए है-१ सुपमसुपमा, २ सुपमा, : सुपमदुषमा, ४. दु पमसुपमा, ५ दुपमा, ६ दुपमदुपमा। चार कोटाकोटि सागरोपम का सुपमसुपमा काल है । तीन कोटाकोटि सागरोपम का सुपमा काल है। दो कोटाकोटि सागरोपम का सुपमदु.पमा काल है। व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम का दुपममुपमा काल है । इक्कीस हजार वर्ष का दुपमा काल है । इक्कीस हजार वर्ष का ही दुपम दुपमा काल है। इन ह्रासोन्मुख छह कालो के समुदाय को अवसर्पिणी कहते है। इसी प्रकार दु पम पमा से लेकर सुपममुपमा तक का विकासोन्मुख काल उत्सपिणी कहलाता है । इस प्रकार दस कोटाकोटि सागरोपम अवसरणी तथा दस कोटाकोटि सागरोपम उत्सर्पिणी काल' है। ३. आलव-जीव को एक तालाव की उपमा दी गई है तथा कर्म को जल की । जीव रूपी तालाव मे कर्मरूपी जल का आगमन आस्रव १ श्रमण भगवान महावीर, पृ० ८५-८९.
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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