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________________ राजस्थान और गुजरात की वैद्य परंपराओं में हर्षकीर्ति के 'योगचितामणि' और हस्तिरुचि के 'वैद्य वल्लभ' का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार रहा है। वि० सं० १७०९ में महेंद्र जैन (कृष्ण वैद्य का पुत्र) ने धन्वन्तरिनिघंटु के आधार पर 'द्रव्यावलीसमुच्चय' ग्रंथ रचा। वरतगच्छीय विनयमेरुगणि (यह वाचक सुमतिसुमेरु के भातृपाठक थे और मानमुनि के गुरु थे) ने 'विद्वन्मुखमंडनसारसंग्रह' नामक चिकित्सा ग्रंथ वि० १८वीं शती के प्रथम चरण में लिखा था। इसी प्रकार इसी शती में बीकानेर-निवासी तथा धर्मशील के शिष्य रामलाल उपाध्याय ने 'रामनिदानम्' या 'रामऋद्धिसार' नामक निदान संबंधी ग्रंथ लिखा था। वि० १८वीं शती के अंतिम चरण में खरतरगच्छीय दीपकचंद्र वाचक ने जयपुर के महाराजा जयसिंह के काल में जयपुर में ही सं० १७६२ में 'पथ्यलंघननिर्णय' (पथ्यापथ्यनिर्णय, लंघनपथ्यविचार, लंघनपथ्यनिर्णय) नामक ग्रंथ की रचना की थी। इसमें रोगों में किये जाने वाले लंघन (अनाहार) और पथ्यापथ्य का विस्तार से विचार किया गया है। इस ग्रंथ को पुन: वि० सं० १८८५ में शंकर नामक विप्र ने संशोधित किया था। गुजरात के कवि विश्राम ने वि० सं० १८३६ में 'व्याधिनिग्रह' और सं० १८४२ में 'अनुपानमंजरी' नामक ग्रंथों की संस्कृत में रचना की थी। प्रथम ग्रंथ में व्याधियों (रोगों) के उपचारार्थ संक्षिप्त योगों व प्रयोगों का तथा द्वितीय ग्रंथ में धातु, उपधातु स्थावरविप, जंगमविष के शांति के उपाय, धातुउपधातु मारणविधि और रोगों के विविध अनुपान बताये गये हैं । ये दोनों ही ग्रंथ वहुत उपयोगी हैं और इनका प्रकाशन आवश्यक है। कवि विश्राम के गुरु का नाम जीव और निवासस्थान अंजार (कच्छ) था। यह आगमसंज्ञक गच्छ के यति थे। इन संस्कृत ग्रंथों के अतिरिक्त राजस्थानी, गुजराती और ब्रज व प्राचीन हिंदी में भी अनेक ग्रंथ मिलते हैं। नयनसुख (केसराज का पुत्र श्रावक) ने वैद्यमनोत्सव (वि० सं० १६४६ चिकित्सा संबंधी ग्रंथ); नर्बुदाचार्य या नर्मदाचार्य ने 'कोककला चौपई' (सं० १६५६, कामशास्त्रविषयक ग्रंथ); लक्ष्मीकुशल ने 'वैद्यकसाररत्नप्रकाश चौपई' (सं० १६६४); नयनशेखर ने 'योगरत्नाकर चौपई' (सं० १७३६); खरतरगच्छीययति रामचंद्र ने 'रामविनोद' (सं० १७२० तथा वैद्यविनोद' (सं० १७२६); जिनसमुद्र सूरि ने 'वैचितामणि' या 'वैद्यकसारोद्धार' या 'समुद्रसिद्धांत' या 'समुद्रप्रकाशसिद्धांत' (सं० १७३०-४० के लगभग); धर्मसी (धर्मवर्द्धन या धर्मसिंह) ने सं० १७४० में 'डंभक्रिया'; लक्ष्मीवल्लभ ने कालज्ञान (शंभुनाथकृत संस्कृत के कालज्ञान का पद्य मय भाषानुवाद, सं० १७४१) और मूत्र परीक्षा (सं० १७४५ के लगभग); मुनि मान ने 'कविविनोद' (सं० १७४५)और कविप्रमोद (सं० १७४६); साहिब ने 'संग्रहणीविचार चौपई' (सं० १६७५); पीतांबर ने 'आयुर्वेदसारसंग्रह' (सं० १७५६); ७४ : जन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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