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________________ ग्रंथ अप्राप्य हैं। समंतभद्र के अष्टांग विषयक ग्रंथ का उग्रादित्य ने उल्लेख किया है। पूज्यपाद का वैद्यक-ग्रंथ संभवतः 'पूज्यपादीय' कहलाता था। कल्याणकारक व वसवराजीय में पूज्यपाद के अनेक योगों का उल्लेख है। आठवीं शती के अंतिम चरण में उग्रादित्य ने वेंगी के पूर्वी चालुक्य राजा विष्णुवर्धन चतुर्थ (ई० ७६४ से ७९६ ) के शासनकाल में 'रामगिरि' (विजगापटम जिले के अंतर्गत रामतीर्थ नामक पर्वतीय स्थान) में रहते हुए 'कल्याणकारक' की रचना की थी। यहीं पर उग्रादित्य के गुरु श्रीनंदी को राजा द्वारा सम्मान व आश्रय प्राप्त था। इस काल में रामगिरि एक प्रसिद्ध जैन तीर्थ (जो पहले बौद्ध तीर्थ था) बन चुका था। विष्णुवर्धन की मृत्यु के बाद चालकों के पतनकाल में उग्रादित्य को प्रतापी राष्ट्रकूट सम्राट अमोघवर्ष प्रथम (ई०८१५ से ८७७) की राजसभा में उपस्थित होना पड़ा। यहीं उन्होंने मांस-भक्षण-निषेध पर विस्तृत व्याख्यान दिया। बाद में, इस विवेचन को 'हिताहित' अध्याय के नाम से कल्पाककारक के परिशिष्ट के रूप में उग्रादित्य ने सम्मिलित कर दिया है। यहां अमोघवर्ष को 'नपतुंग' कहा गया है, जो उसकी एक प्रधान उपाधि थी और वह केवल इसी नाम से प्रसिद्ध था। यह सम्राट भी दिगंबर जैनानुयायी था। 'कल्याणकारक' अपनी श्रेणी का एक उच्चकोटि का ग्रंथ है। इसमें स्वास्थ्य-रक्षा के उपाय बताते हुए चिकित्सा के आठों अंगों का विस्तार से विश्लेषण किया गया है। प्राणावाय-परंपरा का यही एकमात्र उपलब्ध ग्रंथ है । अत: इसका बहुत महत्त्व है। इसमें मांस, मद्य और मधु का कहीं प्रयोग नहीं दिया गया है। सभी योग वानस्पतिक और खनिज हैं। निदान और चिकित्सा की इसकी विशिष्ट शैली है, जो अन्य आयुर्वेदीय ग्रंथों में प्राय: देखने को नहीं मिलती। ___ इसी परंपरा में गुप्तदेवमुनि ने 'मेरुतुंग' ग्रंथ की रचना की थी। अमृतनंदी ने जैन पारिभाषिक वैद्यक शब्दों का एक वैद्यक निघंटु रचा था, जिसमें २२ हजार शब्द हैं, जिनका जैन सिद्धांतानुसार पारिभाषिक अर्थ दिया है। परवर्ती काल में देशीय भाषाओं में भी ग्रंथ रचे गये। कन्नड के ग्रंथ प्रसिद्ध हैं-जैसे चालुक्य राजा कीतिवर्मा ने ११२५ ई० में कन्नड़ भाषा में पशु-चिकित्सा पर ‘गोवैद्यक', जगछल सामन्त सोमनाथ ने ११५० ई० में पूज्यपाद के ग्रंथ का 'कर्नाटक कल्याणकारक' नाम से कन्नड़ी अनुवाद, अभिनवचंद्र ने १४०० ई० में 'अश्ववैद्यक' कन्नडी भाषा में लिखे । विजयनगर के हिन्दु साम्राज्य के अंतर्गत भी अनेक जैन वैद्यक-ग्रंथ रचे गये थे । हरिहरराज बुक्क के समय में वि० सं० १४१६ (१३६० ई०) में मंगराज नामक कानडी कवि ने 'खगेंद्रमणिदर्पण' नामक ग्रंथ की रचना की थी। इसमें स्थावरविषों और उनकी चिकित्सा का वर्णन किया गया है। ई० १५०० में श्रीधरदेव ने 'वैद्यामृत' की, १५०० ई० बाचरस ने 'अश्ववैद्यक' की और १६२७ ई० में मैसूर-नरेश चामराज के आदेश से पद्माणपंडित ७२ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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