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________________ तंत्रग्रंथों से उपयोगी सामग्री एकत्रित कर अष्टांगपरक इन दो ग्रंथों की रचना की थी । 'प्राणावाय' की परम्परा उग्रादित्य के बाद किस प्रकार चलती रही, यह अब ज्ञात नहीं है । क्योंकि बाद के किसी ग्रंथ में प्राणावाय की परम्परा का दिग्दर्शन मात्र भी नहीं मिलता । फिर भी वैद्यक संबंधी ग्रंथ रचना प्रचुर मात्रा में होती है और जैन विद्वानों व यति-मुनियों ने इसमें अपूर्व योगदान किया । फिर भी इसका उद्देश्य चिकित्सा - कार्य था, न कि प्राणावाय साहित्य का समुपबृंहण करना । इन ग्रंथों में प्रतिपादित विषय आयुर्वेद को सर्वसामान्य व प्रचलित सिद्धांत और चिकित्सा प्रयोग ही है । प्राणावाय संबंधी जो वैशिष्ट्य और भिन्नता 'कल्याणकारक' में देखने को मिलती है, वह इन परवर्ती जैन वैद्यक-ग्रंथों में परिलक्षित नहीं होती । अत: इन्हें 'प्राणावाय' की संपूर्ति करने से ग्रंथ नहीं कहा जा सकता । जैन वैद्यक-ग्रंथ जैसाकि मैंने ऊपर संकेत किया है, जैन 'प्राणावाय' संबंधी साहित्य बहुत प्राचीनकाल से ही निर्मित होने लग गया था। संभवतः ईसवीय प्रथम शताब्दी या उससे कुछ समय पूर्व से ही इस तथ्य के संकेत मिलते हैं । परंतु उत्तरी भारत से इन ग्रंथों का सर्वथा लोप हो गया और दक्षिण में वे प्रचलित रहे। इसके मुख्य कारण यही हो सकते हैं कि उत्तरी भारत को बाह्य विदेशी आक्रमणों से अनेक वार निरंतर पदाक्रांत होना पड़ा और हिंसा व क्रोध की अग्नि में अनेक ग्रंथरत्न भस्मीभूत कर डाले गये, प्राचीन वैज्ञानिक और साहित्यिक परम्पराओं का लोप हो गया तथा अनेक विद्वानों को या तो हिमालय के दुर्गभ व बीहड़ क्षेत्रों में अथवा दक्षिण के सुदूर प्रांतों में शरण लेनी पड़ी। अतः वे अपना साहित्य, विज्ञान और कला के मूलाधारों को भी अपने साथ ले गये। जो छोड़ गये, वे नष्ट हो गये । इस विनाश की श्रृंखला में स्वाभाविक है कि प्राणावाय संबंधी विद्वानों, उनके ग्रंथों और परम्पराओं को दक्षिण में आश्रय प्राप्त करना पड़ा। यही कारण है कि प्राचीनतम जैन वैद्यक - साहित्य दक्षिण में मिलता है और वहां प्राणावाय की परम्परा पर्याप्त समय तक निरंतर रहने के संकेत भी प्राप्त होते हैं जबकि उत्तरी भारत में यह लुप्त हो गई थी । उत्तरी भारतीय क्षेत्रों से जैन 'प्राणावाय' के हटने का एक कारण यह भी हो सकता है कि शैवों और शाक्तों के बढ़ते प्रभाव में मद्य-मांस के प्रयोग को खूब प्रचारित किया, जिसका 'प्राणावाय' में निवेध है। साथ ही, जैनों को भी वहां से पश्चिमी, और सुदूर दक्षिणी क्षेत्रों में हटना पड़ा । अस्तु । प्राचीन संदर्भों के आधार पर ज्ञात होता है कि प्राणावाय के समंतभद्र ( ई० दूसरी शती) और पूज्यपाद ( पांचवीं शती) आदि प्रतिष्ठित आचार्य थे । परंतु इनके जैन आयुर्वेद साहित्य : एक मूल्यांकन : ७१
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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