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________________ का प्रणयन होता रहा है। यह निश्चित है कि जैन विद्वानों द्वारा वैद्यक कर्म अंगीकार किये जाने पर चिकित्सा में निम्न दो प्रभाव स्पष्टतया परिलक्षित हुए १. अहिंसावादी जैनों ने शवच्छेदन प्रणाली और शल्यचिकित्सा को हिंसक कार्य मानकर चिकित्सा-कार्य से उन्हें अप्रचलित कर दिया। परिणामस्वरूप हमारा शारीर संबंधी ज्ञान शनैः-शनैः क्षीण होता गया और शल्यचिकित्सा का ह्रास हो गया। उनका यह पूर्णनिषेध भारतीय शल्यचिकित्सा की अवनति का एक महत्त्वपूर्ण कारण बना। २. जहां एक ओर जैन विद्वानों ने शल्यचिकित्सा का निषेध किया, वहां दूसरी ओर उन्होंने रसयोगों (पारद से निर्मित व धातुयुक्त व भस्में) और सिद्धयोगों का बाहुल्येन उपयोग करना प्रारंभ किया। एस समय ऐसा आया जब सब रोगों की चिकित्सा सिद्धयोगों द्वारा ही की जाने लगी। जैसा कि आजकल ऐलोपैथिक चिकित्सा में सब रोगों के लिए पेटेण्टयोग प्रयुक्त किये जा रहे हैं। नवीन सिद्धयोग और रसयोग भी प्रचलित हुए। ३. भारतीय दृष्टिकोण के आधार पर रोग-निदान के लिए नाड़ी-परीक्षा, मूत्र-परीक्षा आदि को भी जैन वैद्यों ने प्रश्रय दिया। यह उनके द्वारा इन विषयों पर निर्मित अनेक ग्रंथों से ज्ञात होता है। ४. औषधि-चिकित्सा में मांस और मांस रस के योग जैन वैद्यों द्वारा निषिद्ध कर दिये गये । मद्यों (सुराओं) का प्रयोग भी वजित हो गया। मधु (शहद) का प्रयोग भी अहिंसात्मक धारणा के कारण उपयुक्त नहीं माना गया। 'कल्याणकारक' नामक जैन-वैद्यक ग्रंथ में तो मांस के निषेध की युक्ति-युक्त विवेचना की गई है। ५. इस प्रकार केवल वानस्पतिक और खनिज द्रव्यों से निर्मित योगों का जैन-आयुर्वेदज्ञों द्वारा चिकित्सा-कार्य में विशेष रूप से प्रचलन किया गया। यह आज भी सामान्य चिकित्सा जगत् में व्यवहार में परिलक्षित होता है। ६. सिद्धयोग चिकित्सा (स्वानुभूत विशिष्ट योगों द्वारा चिकित्सा) प्रचलित होने से जैन वैद्यक में त्रिदोषवाद और पंचभूतवाद के गंभीर तत्त्वों को समझने और उनका रोगों से व चिकित्सा से संबंध स्थापित करने की महान् और गढ़ आयुर्वेद-प्रणाली का ह्रास होता गया और केवल लाक्षणिक चिकित्सा ही अधिक विकसित होती गई। ७. जैन वैद्यक ग्रंथ अधिकांश में प्रादेशिक भाषाओं में रचित उपलब्ध होते हैं; फिर भी, संस्कृत में विरचित जैन वैद्यक ग्रंथों की संख्या न्यून नहीं है। अनेक जैन वैद्यों के चिकित्सा और योगों से संबंधित 'गुटके' (परम्परागत नुसखों के संग्रह, जिन्हें 'आम्नाय ग्रंथ' कहते हैं) भी मिलते हैं, जिनका अनुभूत प्रयोगावली के रूप में अवश्य ही बहुत महत्त्व है। जैन आयुर्वेद साहित्य : एक मूल्यांकन : ६७
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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