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________________ जैन आयुर्वेद साहित्य : एक मूल्यांकन राजेन्द्रप्रकाश आ० भटनागर भारतीय संस्कृति में चिकित्सा का कार्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण और प्रतिष्ठित माना गया है, क्योंकि प्रसिद्ध आयुर्वेदीय ग्रंथ 'चरक संहिता' में लिखा है-"न हि जीवितद्वानाद्धि दानमन्यविशिष्यते" (च० चि० अ० १, पा० ४, श्लो० ६१)। अर्थात् जीवनदान से बढ़कर अन्य कोई दान नहीं है। चिकित्सा से कहीं धर्म, कहीं अर्थ (धन), कहीं मैत्री, कहीं यश और कहीं कार्य का अभ्यास ही प्राप्त होता है, अतः चिकित्सा कभी निष्फल नहीं होती। 'क्वचिद्धर्मः क्यचिदर्थः क्वचिन्मैत्री क्वचिद्यशः । कर्माभ्यास: क्वचिच्चैव चिकित्सा नास्ति निष्फला।" अतएव प्रत्येक धर्म के आचार्यों और उपदेशकों ने चिकित्सा द्वारा लोक-प्रभाव स्थापित करना उपयुक्त समझा। बौद्धधर्म के प्रवर्तक भगवान् बुद्ध को 'भैषज्यगुरु' का विशेषण प्राप्त था। इसी भांति, जैन आचार्यों ने भी चिकित्साकार्य को धार्मिक शिक्षा और नित्यनैमित्यिक कार्यों के साथ प्रधानता प्रदान की। धर्म के साधनभूत शरीर को स्वस्थ रखना और रोगी होने पर रोगमुक्त करना आवश्यक है। अद्यावधि प्रचलित 'उपाश्रय' (उपासरा) प्रणाली में जहां जैन यति-मुनि सामान्य विद्याओं की शिक्षा धर्माचरण का उपदेश और परम्पराओं का मार्गदर्शन करते रहे हैं, वहीं वे उपाश्रयों को चिकित्सा केद्रों के रूप में समाज में प्रतिष्ठापित कराने में भी सफल हुए थे। ___ इस प्रकार सामान्यतया वैद्यकविद्या को सीखना और निःशुल्क समाज की सेवा करना जैन यति-मुनियों के दैनिक जीवन का अंग बन गया था, जिसका सफलतापूर्वक निर्वाह भी उन्होंने एलोपैथिक चिकित्सा-प्रणाली के प्रचार-प्रसार पर्यन्त यथावत् किया है, परंतु इस नवीन चिकित्सा-प्रणाली के प्रसार से उनके इस लोकहितकर कार्य का प्राय: लोप होता जा रहा है। यही कारण रहा कि जैन आचार्यों और यति-मुनियों द्वारा अनेक वैद्यक ग्रंथों ६६ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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