SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चलता है कि जैन-धर्म ने अपनी विशिष्टता के कारण भारतीय लोकजीवन को कितना अधिक प्रभावित कर दिया था। जैन-धर्म की अजस्रधारा उत्तरी क्षेत्र तक सीमित नहीं रही, बल्कि वह भारत के अन्य भागों को भी आप्लावित करती रही। मध्यभारत में ग्वालियर, देवगढ़, चंदेरी, सोनागिरि, खजुराहो, अजयगढ़, कुंडलपुर, जसो, अहारथूवोन और तुमैन एवं राजस्थान तथा मालवा में चंदाखेड़ी, पालीताना आबू-पर्वत, सिद्धवरकूट तथा उज्जैन प्रसिद्ध जैन केंद्र रहे हैं। इसी प्रकार सौराष्ट्र, गुजरात तथा बंबई प्रदेश में गिरनार, बलभी, शत्रुजय, अणहिलवाड़ा, एलोरा और बादामी तथा दक्षिण में बेलूर, हांपी, श्रवणबेलगोला तथा हलेवीड आदि स्थानो में जैन स्थापत्य, मूर्तिकला तथा चित्रकला एक दीर्घकाल तक प्रवधित होती रहों। ___ भारत के अनेक राजवंशों ने भी जैन कला की उन्नति में योग दिया। गुप्तशासकों के बाद चालुक्य, राष्ट्रकूट, कलचुरि, गंग, कदम्ब, चोल तथा पांड्य वंश के अनेक राजाओं ने जैन कला को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया। इन वंशों के कई राजा जन-धर्मानुयायी थे। इनमें सिद्धराज जयसिंह, कुमारपाल, अमोघवर्ष अकालवर्ष तथा गंगवंशी मारसिंह द्वितीय के नाम उल्लेखनीय हैं । इन शासकों को जैन-धर्म की ओर प्रवृत्त करने का श्रेय स्वनामधन्य हेमचंद्र, जिनसेन, गुणभद्र, कुंदकुंद आदि जैन आचार्यों को है । राज्य-संरक्षण प्राप्त होने एवं विद्वान आचार्यों द्वारा धार्मिक प्रचार में क्रियात्मक योग देने पर जैन साहित्य तथा कला की बड़ी उन्नति हुई । मध्यकाल में प्राय: समस्त भारत में जैन मंदिरों एवं प्रतिमाओं का निर्माण जारी रहा। इनमें से कुछ तो ललित कला की दृष्टि से तथा तत्कालीन भारतीय संस्कृति की व्याख्या करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं। ३६ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy