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________________ चरित ( सम्वत् १३५४) साधारु कवि का प्रद्युम्नचरित ( सम्वत् १४११) आदि ग्रंथों की दुर्लभ पांडुलिपियां भी जयपुर के जैन शास्त्र भंडारों में संगृहीत हैं । ये दोनों ही कृतियां हिंदी के आदिकाल की कृतियां हैं, जिनके आधार पर हिंदी साहित्य के इतिहास की कितनी ही विलुप्त कड़ियों का पता लगाया जा सकता है। कबीर एवं गोरखनाथ के अनुयायियों की रचनाएं भी इन भंडारों में संगृहीत हैं। जिनके गहन अध्ययन एवं मनन की आवश्यकता है। मधुमालती कथा, सिंहासन बत्तीसी, माधवानल - प्रबंधकथा की प्राचीनतम पांडुलिपियां भी राजस्थान के इन भंडारों में संगृहीत हैं । वास्तव में देखा जाए तो राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों ने जितना हिंदी एवं राजस्थानी ग्रंथों को सुरक्षित रखा है उतने ग्रंथों को अन्य कोई भी भंडार नहीं रख सके हैं। जैन कवियों की सैकड़ों गद्य पद्य रचनाएं इनमें उपलब्ध होती हैं, जो काव्य, चरित, कथा, रास, वेलि, फागु, ढमाल, चौपई, दोहा, बारहखड़ी, विलास, गीत, सतसई, पच्चीसी, बत्तीसी, सतावीसी, पंचासिका, शतक के नाम से उपलब्ध होती हैं । तेरहवीं शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक निबद्ध कृतियों का इन भंडारों अम्बार लगा हुआ है जिनका अभी तक प्रकाशित होना तो दूर रहा, वे पूरे प्रकाश में भी नहीं आ सके हैं । अकेले ब्रह्मजिनदास ने पचास से भी अधिक रचनायें लिखी हैं, जिनके संबंध में विद्वत् जगत अभी तक अन्धकार में ही है। अभी हाल में ही महाकवि दौलतराम की दो महत्त्वपूर्ण रचनाओं - जीवंधर स्वामी चरित एवं विवेकविलास का प्रकाशन हुआ है । कवि ने १८ रचनायें लिखी हैं और वे एक से एक उच्चकोटि की हैं। दौलतराम अठारहवीं शताब्दी के कवि थे और कुछ समय उदयपुर भी महाराणा जगतसिंह के दरबार में रह चुके थे । ' कलात्मक कृतियां पांडुलिपियों के अतिरिक्त इन जैन भंडारों में कलात्मक एवं सचित्र कृतियों की भी सुरक्षा हुई है ।' कल्पसूत्र की कितनी ही सचित्र पांडुलिपियां कला की उत्कृष्ट कृतियां स्वीकार की गयी हैं । कल्पसूत्र कालकाचार्य की एक ऐसी ही प्रति जैसलमेर के शास्त्र भंडार में संगृहीत है । कला-प्रेमियों ने इसे पन्द्रहवीं शताब्दी की स्वीकार की है । आमेर शास्त्र भंडार जयपुर में एक आदिनाथ पुराण की सम्वत् १४६१ (सन् १४०४ ) की पांडुलिपि है । इसमें १६ स्वप्नों का जो चित्र 1 १. देखिये दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व — डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल । २. जैनग्रंथ भंडाराज इन राजस्थान डॉ० के० सी० कासलीवाल । १०४ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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