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________________ १३९१ की पांडुलिपि सबसे प्राचीन है और वह जयपुर के ही एक भंडार में संगृहीत है ।' महाकवि नयनन्दि की सुंदसणचरिउ की जितनी संख्या में पांडुलिपियां जयपुर के शास्त्र-भंडार में संगृहीत हैं उतनी अन्यत्र कहीं नहीं मिलती । नयनन्दि ग्यारहवीं शताब्दी के अपभ्रंश के कवि थे । इनके एक अन्य ग्रंथ सयलविहिविहाण काव्य की एकमात्र पांडुलिपि जयपुर के आमेर शास्त्र भंडार में संगृहीत है।' इसमें कवि ने अपने से पूर्व होने वाले कितने ही कवियों के नाम दिए हैं। इसी तरह श्रृंगार एवं वीर रस के महाकवि वीर का जम्बूसामिचरिउ भी राजस्थान में अत्यधिक लोकप्रिय था और उसकी कितनी ही प्रतियां जयपुर एवं आमेर के शास्त्र-भंडारों में उपलब्ध होती हैं । अपभ्रंश में सबसे अधिक चरितकाव्य लिखने वाले महाकवि रधू के अधिकांश ग्रंथ राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों में उपलब्ध हुए हैं । अपभ्रंश के अन्य कवियों में महाकवि यश: कीर्ति, पंडित लाखु, हरिषेण, श्रुतकीर्ति, पद्मकीर्ति, महाकवि श्रीधर, महाकवि सिंह, धनपाल, श्रीचन्द, जयमिहल, नरसेन, अमरकीर्ति, गणिदेवसेन, माणिक्कराज एवं भगवतीदास जैसे पचासों कवियों की छोटी-बड़ी सैकड़ों रचनाएं इन्हीं भंडारों में संगृहीत हैं । अठारहवीं शताब्दी में होने वाले अपभ्रंश के अन्तिम कवि भगवतीदास की कृति मृगांकलेखा चरित की पांडुलिपि भी आमेर शास्त्र भंडार, जयपुर में संगृहीत है । भगवतीदास हिंदी के अच्छे विद्वान थे, जिनकी बीस से भी अधिक रचनाएं उपलब्ध होती हैं । राजस्थानी एवं हिंदी के ग्रंथ संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश के समान ही जैन ग्रंथ भंडारों में हिंदी एवं राजस्थानी भाषा के ग्रंथों की पूर्ण सुरक्षा की गयी । यही कारण है कि राजस्थान के इन ग्रंथ भंडारों में हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा की दुर्लभ कृतियां उपलब्ध हुई हैं और भविष्य में और भी होने की आशा है। हिंदी के बहुचर्चित ग्रंथ पृथ्वीराज रासो की प्रतियां कोटा, बीकानेर एवं चूरू के जैन भंडारों में उपलब्ध हुई हैं । इसी तरह बीसलदेव रासो की भी कितनी ही पांडुलिपियां अभयग्रंथालय बीकानेर एवं खरतरगच्छ जैन शास्त्र भंडार कोटा में उपलब्ध हो चुकी है। प्रसिद्ध राजस्थानी कृति कृष्ण- रूक्मणि बेलि पर जो टीकाएं उपलब्ध हुई हैं वे भी प्रायः सभी जैन भंडारों में संरक्षित हैं । इसी तरह बिहारी सतसई, रसिकसिया, जैतसीरासो, बैताल पच्चीसी, 'विह्नणचरित' चौपाई की प्रतियां राजस्थान के विभिन्न शास्त्र भंडारों में संगृहीत हैं। हिन्दी की अन्य रचनाओं में राजसिंह कवि का जिनदत्त १. देखिये प्रशस्ति संग्रह — डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, पृ० ६२ २ . वही, पृ० २८५ ग्रन्थों की सुरक्षा में राजस्थान के जैनों का योगदान : १०३
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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