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________________ यथा -- “एकादा तेन संदृष्टो मार्गभ्रष्टो यतीश्वरः। पुण्यात् सागरसेनाख्यः पथि संभ्रमता वने ॥" -शांति, अधि० २, श्लोक २०१ यहां 'मार्गभ्रष्ट' शब्द यद्यपि रास्ता भूले हुए यती के.लिए प्रयुक्त हुआ है किन्तु इस शब्द से एक दूसरा अर्थ 'बुरे मार्ग का आचरण करने वाला' भी प्रतीत हो जाता है जो ठीक नहीं। ___ चरित-काव्यों के माध्यम से कवि ने जन-मानस तक जैन-धर्म एवं संस्कृति के स्वरूप को हृदयंगम कराने का सफल प्रयास किया है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए संस्कृत भाषा का आश्रय लिया गया। अतः भाषा के सरलतम स्वरूप को अपनाकर कवि ने जहां संस्कृत को पुनः प्रतिष्ठित किया वहां चरितकाव्यों की क्षीण-धारा को पुनः मधुर रस से भर दिया। धर्म, चरित्र, पुण्य, पाप, काम, वीतराग, निग्रंथ, गुरुसेवा, तप, द्वेष, राग, क्रोध, मान, माया, लोभ, संगति, जिनपूजा, पात्रदान, कुपात्रदान, भावना, रात्रिभोजन, गृहत्याग, भोग, धैर्य, शोक, स्नान, देह-नैर्मल्य, व्रतभंग, समाधिमरण, आशा, परिवार कर्म, महामंत्र, धर्मोषध, एकत्वविवेक, द्यूत, सप्तव्यसन, नारी, ज्ञान, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व आदि अनेकानेक विषयों का श्रमण संस्कृति के व्यापक परिवेश में विशद विवेचन भ० सकलकीर्ति के चरित-काव्यों की प्रमुख विशेषता है। इस क्षेत्र में संस्कृत-साहित्य में इनका योगदान अविस्मरणीय है। ६६ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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