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________________ प्रकृति से रागात्मक संबंध होता है। कवि के काव्यों में मानव-प्रकृति का चित्रण बहुत ही सुन्दर हुआ है । जड़-प्रकृति के चित्रण का भी अभाव नहीं है । कहीं इसका भयावह तो कहीं सुकोमल स्वरूप का चित्रण कर कवि ने काव्य-प्रभाव की अन्विति का सफलतापूर्वक निर्वाह किया है। किंचित् दिग्दर्शन के लिए एक-एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है “अथास्ति विध्यनामागिरिस्तुंगोऽतिभयंकरः।। मांशाशिभिव्याघ्रादिभिव्याधेश्च हिंसकः।।" इत्यादि । -वही, सर्ग ५, श्लोक २ "अथ सिप्रानदी रम्या विशालाऽमलसजला। विशालाशाललग्नाऽस्ति सपद्मा सिकतान्विता।" - वही, सर्ग ५, श्लोक ४३ कलापक्ष सकलकीति का संस्कृत-भाषा पर अपूर्व अधिकार है। भाषा में प्रवाह एवं प्रभविष्णुता है । शैली कहीं अलंकृत तो कहीं अनलंकृत है। अलंकारों का उपयोग भी विषय की स्पष्टता के लिए ही हुआ है। अत: अनुप्रास को छोड़कर शेष सभी शब्दालंकारों का अभाव दृष्टिगत होता है। अर्थालंकारों में भी रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास आदि का प्राधान्य है। रूपक का एक उदाहरण सहृदयों के आस्वादनार्थ दिया जा रहा है----- 'ज्ञानजालं परं ज्ञेयं पंचाक्षमत्स्यबंधने । ज्ञानसिंहो भवत्येव कामदंतिविघातने । ज्ञानपाशो दृढो नृणां मनोमर्कटरुंधने । ज्ञानमादित्य एवाखिलाज्ञानध्वांतनाशने।।" ---मल्लिनाथपुराण, परि० १, श्लोक ७१-७२ उनका गद्य भी प्रौढ किंतु प्रासादिक शैली में है। समस्त पदों का प्रायः अभाव है। स्वाभाविक रूप से जो समास बन जाता है उसी का प्रयोग किया गया है। यथा--- "इति जिनप्रणीतं तत्त्वमजानाना कर्मशृंखलावृत्तास्तीव्रतरं दुःखं भुंजानाः प्राणिनो दुरन्ते संसार-कान्तारे प्रत्यहं भ्रमन्ति । अतो दुःखभयभीतैः शर्मकांक्षिभिः सम्यक्त्व-संयमादिभिमिथ्यासंयमादीनाहत्य मुक्तिसाधने प्रयत्नः कर्तव्यः।" -- उत्तरपुराण, पत्र सं० २७ कहीं-कहीं शब्द चयन की अदक्षता से अनुचित अर्थ की ध्वनि भी सहृदयों को सुनाई पड़ जाती है जिसे भापागत दोष कह सकते हैं। भट्टारक सकलकीर्ति का संस्कृत चरित-काव्य को योगदान : ६५
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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