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________________ (१८) यात्रामें चेतावनी। १-भाईयो ! मनुष्य जन्म, नीरोग्यशरीर, धनसम्पत्ति, उत्तम कुल आदिका पाना दुर्लभ है। जो इन सबको पाकर और घरमे प्रमादी होकर पड़ा रहता है उसका ये सब पाना व्यर्थ है। २-गृहस्थी सम्बन्धी सब कार्य छोड़कर, शांतचित्त उदार भावोंसे शक्तिप्रमाण तप-दान त्याग करते हुए, मान, मत्सर, प्रमाद क्रोधादि कषायोंको त्यागकर शुद्ध भावोंसे तीर्थयात्रा करनी चाहिये। ३-मिडक्षेत्रोंके उपर वंदनाको जाते समय शौचम्नानादिसे निवटकर, शुद्ध वस्त्र पहिनकर, शक्तिप्रमाण सामग्री लेकर, बड़े आनंद के साथ जय२ शन करते हुए जाना चाहिये । पहाड़ ऊपर ध्यान सहित, चित्त को शांत करके बड़े उत्कृष्ट भावोंके साथ यात्रा करनी चाहिये । ४-अपनी शक्तिप्रमाण चढ़ानेकी सामग्रोको दिनमें खूब सोधकर बढ़िया करके ले जाना चाहिये । ५-तीर्थोपा जीर्णोद्धार, माम्मत. नवीन कारखाना, पुनारी, मुनीम का वचं ज्यादह रहता है। इससे उदार भावोंसे धनका मोह छोड़कर अच्छा भंडार नाना चाहिये । तीर्थोपर नाना तरहके दुग्यो जीव रहते हैं उनको भी दान करना चाहिये। मुनि-आर्थिका, श्रावक, श्राविका, विद्यार्थी, पंडित ऐसे तुमत्रों को यथायोग्य दान देना चाहिये। ६-गोदी, डोली आदिके मजदूरों की मजूरी ठोकर देनी चाहिये। किसीको दुःख न हो। किसीका दिल न दुखे, इस बातको ध्यान में रखें।
SR No.010324
Book TitleJain Tirth Yatra Darshak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGebilal Bramhachari, Guljarilal Bramhachari
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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