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________________ और भी देखिए। जो जल प्यासको शान्त करने, खेतीको पैदा करने आदिमें सहायक होनेसे प्राणियोका प्राण है-जीवन है वही बाढ लाने, डूबकर मरने आदिमें कारण होनेसे उनका घातक भी है। कौन नही जानता कि अग्नि कितनी सहारक है, पर वही अग्नि हमारे भोजन बनाने आदिमें परम सहायक भी है। भूखेको भोजन प्राणदायक है, पर वही भोजन अजीर्ण वाले अथवा टाइफाइडवाले बीमार आदमीके लिये विप है। मकान, किताब, कपडा, सभा, संघ, देश आदि ये सब अनैकान्त ही तो हैं। अकेली इंटो या चूने-गारेका नाम मकान नहीं है। उनके मिलापका नाम ही मकान है । एक-एक पन्ना किताव नही है नाना पन्नोंके समूहका नाम किताब है। एक-एक सूत कपडा नही कहलाता । ताने-बाने रूप अनेक सूतोके सयोगको कपडा कहते हैं। एक व्यक्तिको कोई सभा या सघ नही कहता । उनके समुदायको ही समिति, सभा, सघ या दल आदि कहा जाता है। एक-एक व्यक्ति मिलकर जाति, और अनेक जातियाँ मिलकर देश बनते हैं । जो एक व्यक्ति है वह भी अनेक बना हुआ है। वह किसीका मित्र है, किसीका पुत्र है, किसीका पिता है, किसीका पति या या स्त्री है, किसीका मामा या भाजा है, किसीका ताक या भतीजा है आदि अनेक सम्बन्धोसे वधा हुआ है। उसमें ये सम्बन्ध काल्पनिक नहीं हैं, यथार्थ हैं। हाथ, पैर, आँखें, कान ये सब शरीरके अवयव ही तो है और उनका आधारभूत अवयवी शरीर है । इन अवयव-अवयवी स्वरूप वस्तुको ही हम सभी शरीरादि कहते व देखते हैं। कहनेका तात्पर्य यह है कि यह सारा ही जगत् अनेकान्तस्वरूप है। इस अनेकान्तस्वरूपको कहना या मानना अनेकान्तवाद है। अनेकान्तस्वरूपका प्रदर्शक स्याद्वाद भगवान् महावीर और उनके पूर्ववर्ती ऋपभादि तीर्थकरोंने वस्तुको अनेकान्तस्वरूप साक्षात्कार करके उसका उपदेश दिया और परस्पर विरोधी-अविरोधी अनन्त धर्मात्मक वस्तुको ठीक तरह समझने-समझानेके लिए वह दृष्टि भी प्रदान की जो विरोधादिके दूर करनेमें एकदम सक्षम है। वह दृष्टि है स्याद्वाद, जिसे कथचितवाद अथवा अपेक्षावाद भी कहते हैं। इस स्याद्वाद-दष्टिसे ही हम उस अनन्तधर्मा वस्तुको ठीक तरह जान सकते हैं। कौन धर्म किस अपेक्षासे वस्तुमें निहित है, इसे हम, जब तक वस्तुको स्याद्वाद दृष्टिसे नहीं देखेंगे, नही जान सकते हैं। इसके सिवा और कोई दष्टि वस्तके अनेकान्तस्वरूपका निर्दोष दर्शन नही करा सकती है । वस्तु जैसी है उसका वैसा ही दर्शन करानेवाली दष्टि अनेकान्तदृष्टि अथवा स्याद्वाददृष्टि ही हो सकती है, क्योकि वस्तु स्वय अनेकान्तस्वरूप है। इसीसे वस्तके स्वरूप-विषयमें "अर्थोऽनेकान्त । अनेके अन्ता धर्मा सामान्य-विशेष-गुण-पर्याया यस्य सोऽनेकान्त" यो कहा गया है । दूसरी दृष्टियां वस्तुके एक-एक अशका दर्शन अवश्य कराती हैं। पर उस दर्शनसे दर्शकको यह भ्रम एव एकान्त आग्रह हो जाता है कि वस्तु इतनी मात्र ही है और नही है । इसका फल यह होता है कि शेष धर्मों या अशोका तिरस्कार हो जानेके कारण वस्तुका पूर्ण एव सत्य दर्शन नही हो पाता। स्याद्वाद-तीर्थके प्रभावक आचार्य समन्तभद्रस्वामीने अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें इसी बातको निम्न प्रकार प्रकट किया है - य एव नित्य-क्षणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षा स्वपर-प्रणाशिनः । त एव तत्त्व विमलस्य ते मुने परस्परेक्षा स्वपरोपकारिण ।। 'यदि नित्यत्व, अनित्यत्व आदि परस्पर निरपेक्ष एक-एक ही धर्म वस्तमें हो तो वे न स्वय अपने अस्तित्वको रख सकते हैं और न अन्यके। यदि वे ही परस्पर सापेक्ष हो-अन्यका तिरस्कार न करें तो हे विमल जिन ! वे अपना भी अस्तित्व रखते हैं और अन्य धर्मोका भी। तात्पर्य यह कि एकान्तदृष्टि तो स्वपरघातक है और अनेकान्त-दृष्टि स्वपरोपकारक है।'
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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