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________________ अनेकान्तवाद-विमर्श जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण निव्वडइ । तस्स भुवणेक्क-गुरुणो णमो अगंतवास्स || 'जिसके बिना लोकका भी व्यवहार किसी तरह नही चल सकता, उस लोकके अद्वितीय गुरु 'अनेकान्तवाद' को नमस्कार है ।' - आचार्य सिद्धसेन यह उन सन्तोकी उद्घोषणा एव अमृत वाणी है, जिन्होने अपना साघनामय समूचा जीवन परमार्थचिन्तन और लोककल्याणमे लगाया है। उनकी यह उद्घोषणा काल्पनिक नही है, उनकी अपनी सम्यक् अनुभूति और केवलज्ञानसे पूत एव प्रकाशित होनेसे वह यथार्थ है । वास्तवमें परमार्थ-विचार और लोकव्यवहार दोनोकी आधार शिला अनेकान्तवाद । बिना अनेकान्तवादके न कोई विचार प्रकट किया जा सकता है और न कोई व्यवहार ही प्रवृत्त हो सकता है । समस्त विचार और समस्त व्यवहार इस अनेकान्तवादके द्वारा ही प्राण-प्रतिष्ठाको पाये हुए है । यदि उसकी उपेक्षा कर दी जाय तो वक्तव्य वस्तुके स्वरूपको न तो ठीक तरह कह सकते हैं, न ठीक तरह समझ सकते हैं और न उसका ठीक तरह व्यवहार ही कर सकते है । प्रत्युत, विरोध, उलझनें, झगडे-फिसाद, रस्साकशी, वाद-विवाद आदि दृष्टिगोचर होते हैं, जिनकी वजहसे वस्तुका यथार्थ स्वरूप निर्णीत नही हो सकता । अतएव प्रस्तुत लेखमें इस अनेकान्तवाद और उसकी उपयोगितापर कुछ प्रकाश डाला जाता है । ८ वस्तुका अनेकान्त स्वरूप -- विश्वको तमाम चीजें अनेकान्तमय हैं । अनेकान्तका अर्थ है नानाधर्म । अनेक यानी नाना और अन्त यानी धर्म और इसलिये नानाधर्मको अनेकान्त कहते हैं । अत प्रत्येक वस्तुमें नानाधर्म पाये जानेके कारण उसे अनेकान्तमय अथवा अनेकान्तस्वरूप कहा गया है । यह अनेकान्तस्वरूपता वस्तुमें स्वय है- आरोपित या काल्पनिक नही है । एक भी वस्तु ऐसी है जो सर्वथा एकान्तस्वरूप (एकधर्मात्मक) हो । उदाहरणार्थ यह लोक, जो हमारे व आपके प्रत्यक्षगोचर है, चर और अचर अथवा जीव और अजीव इन दो द्रव्योसे 'युक्त । वह लोकसामान्यकी अपेक्षा एक होता हुआ भी इन दो द्रव्योकी अपेक्षा अनेक भी है और इस तरह वह अनेकान्तमय सिद्ध है । उसके एक जीवद्रव्यको ही लें। जीवद्रव्य जीवद्रव्य-सामान्यकी दृष्टिसे एक होकर भी चेतना, सुख, वीर्य आदि गुणो तथा मनुष्य, तिर्यंच, नारकी, देव आदि पर्यायोको समष्टि रूप होनेकी अपेक्षा अनेक है और इस प्रकार जीवद्रव्य भी अनेकान्तस्वरूप प्रसिद्ध है । इसी तरह लोकके दूसरे अवयव अजीवद्रव्यकी ओर ध्यान दें । जो शरीर सामान्यकी अपेक्षासे एक है वह रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि गुणो तथा वाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि क्रमवर्ती पर्यायोका आधार होनेसे अनेक भी है और इस तरह शरीरादि अजीवद्रव्य भी अनेकान्तात्मक सुविदित है । इस प्रकार जगत्का प्रत्येक सत् अनेकवर्मात्मक ( गुणपर्यायात्मक, एकानेकात्मक, नित्यानित्यात्मक आदि ) स्पष्टतया ज्ञात होता है । 1971
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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